श्रद्धा और पूनावाला कांड में एक ???.....??? वह समाज है जो आज भी हर घर को, हर यूथ को, हर दिल को जातिधर्म, इकौनोमिक स्टेट्स, भाषा, स्किल, कलर से बांटता है. हमारे यहां सदियों पुरानी ट्रेडिशनों को बुरी तरह अपनाया ही नहीं जाता, पैदा होते ही बच्चों को उन का गुलाम भी बना दिया जाता है. जब दिलों में उमंगे उठने लगें, जब किसी की ओर अट्रैक्शन होने लगे, जब लगे कि साथ में एक बौयफ्रैंड, गर्लफ्रैंड होना यूथ की निशानी है लेकिन घर वाले हर चौइस पर पहरा देते हों तो सिवा रिबेल बनने के कोई ठोस रास्ता नहीं है.

श्रद्धा और पूनावाला जैसे मामले हर जगह हो रहे हैं क्योंकि स्कूलों में, सडक़ों पर, बसस्टैंडों पर, पड़ोस में, वर्कप्लेस में अब हर जाति, रंग, धर्म के लोग मिल रहे हैं. मांबाप को यह गवारा नहीं होता कि उन की लाड़ली या लाड़ला किसी ऐसे से पक्का मेलजोल बढ़ाए जो उन के समाज को मंजूर न हो. धर्म के दुकानदार इस कदर चारों ओर फैले हुए हैं और इस कदर उन के एजेंट बिखरे हैं कि कहीं भी जरा भी भनक लगी नहीं कि घरों में हंगामा हो जाता है. लड़कियां और लडक़े ज्यादातर मामलों में अपने फ्रैंड के बारे में सीक्रेसी बरतते हैं और यह कोशिश करते हैं कि उन का संबंध पता न चले.

यह आसान नहीं होता. बारबार फोन की रिंग बजना, देररात तक फोन पर फुसफुसाहट, फोन आते ही एकांत ढूंढऩा, घंटों गायब रहना और पूछने पर टेढ़ेमेढ़े जवाब देना आम है. पर मांबाप, बहनभाई भांप लेते हैं. उन से ज्यादा वे भांप लेते हैं जो सडक़ों के चौराहों पर भगवा दुपट्टा डाले खाली खड़े हरेक को धमकाते रहते हैं. उन से बच पाना बहुत मुश्किल होता है. इसलिए लडक़ेलड़कियां घर छोड़ कर भागते हैं. उन्हें दीनदुनिया की खबर नहीं होती. उन्हें रहने की जगह नहीं मिलती. उन की जेबों में पैसे सीमित होते हैं. गुस्साय मांबाप पुलिस में शिकायत करने की धमकियां देने लगते हैं.

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