देश में मंदिरों और राजनीति के उद्योग के अलावा अगर कोई उद्योगधंधा फूलफल रहा है तो वह पढ़ाई का. केंद्र व राज्य सरकारों ने पिछले 30-40 सालों में ऊंची जातियों के साथ मिल कर मुफ्त अच्छी सरकारी पढ़ाई को ऐसा चौपट किया है कि आज हर घर की बड़ी आमदनी घर, खाने, कपड़ों, इलाज, सैरसपाटे पर नहीं जाती, इन 3 मदों- मंदिरों, राजनीति और पढ़ाई में जाती है.

मंदिर हर कोने में बन रहे हैं और पैसा पा रहे हैं. पुलिस वाले, सरकारी अफसर हर समय नोटिस या बुलडोजर लिए खड़े हैं. हर कोने में प्राइवेट इंग्लिश मीडियम से टाई लगाए महंगी फीस दे कर अधकचरे लड़केलड़कियां खड़े हैं जो कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे प्राइवेट ऐजुकेशनल इंस्टिट्यूटों में पढ़े हैं. उन का नारा है- आओ, आओ डिगरी ले जाओ, तुरंत डिगरी लो. पढ़ो या न पढ़ो पर हमारी भव्य बिल्डिंग देखो, बाग देखो, बसें देखो, स्वीमिंग पूल देखो और डिगरी ले जाओ.

धर्म के धंधे की तरह इस सरकारी संरक्षण पाए प्राइवेट स्कूलिंग और बिलकुल नियंत्रण बिना चल रहा कोचिंग का धंधा 200 अरब रुपए से कम का नहीं है. किताबों, आनेजाने, कंप्यूटरों और फिर वहां फास्ट फूड जोमैटों का खर्च अलग.

कम से कम आधे ग्रैजुएटों की डिगरी बेकार है, बच्चों के मांबापों को समझाते हैं और वे हिचकिचाते हैं कि अपने बच्चों को इतने महंगे स्कूलों, विश्वविद्यालयों में भेजें या नहीं. अब ये लोग भारी पैसा प्रचार पर खर्चते हैं. सड़कों पर होर्डिंग लगते हैं, अखबारों के पहले पेज लिए जाते हैं, कंसल्टैंटों को मोटी रकम दी जा रही है, स्टूडैंट्स का डाटा तैयार हो रहा है, जो महंगे में बिकता है. सब बेकार की डिगरी देने के लिए.

आधे से तीनचौथाई ग्रैजुएट, इंजीनियर, डाक्टर, एमबीए, विशेषज्ञ अपने सब्जैक्ट की एबीसी नहीं जानते. हां, कुछ अंगरेजी बोल लेते हैं, बढि़या कपड़े पहन लेते हैं, स्कूटी, कार ड्राइव कर लेते हैं. स्टारबक और जोमैटो पर और्डर करना जानते हैं. उस के बाद बेकार मांबाप के पैसे पर आश्रित रहते हैं. लाखों तो यही सोच रहे हैं कि मांबाप के पुराने मकान को बेच कर जो पैसा मिलेगा उस से या तो विदेश चले जाएंगे या फिर देश में ही मौज की जिंदगी जी लेंगे.

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