चीन आजकल छलांगें मार रहा है जैसे पहले जापान व उत्तर कोरिया ने मारी थीं. इस की एक बड़ी वजह यह है कि चीनी लोगों पर धर्म का बोझ सब से कम है. जापान और कोरिया भी किसी खास धर्म में विश्वास नहीं रखते. स्कैंडेनेवियन देश स्वीडन, नौर्वे आदि भी निधर्मियों से भरे हैं.

जिन देशों में धर्मों का बोलबाला है वहां आमतौर पर विवाद छाए रहते हैं. वे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, पारिवारिक व मौलिक उलझनों के इतने शिकार रहते हैं कि उन्हें कुछ करनेधरने की फुरसत ही नहीं होती. चीन जब तक कम्यूनिज्म को एक धर्म की तरह मान रहा था वह पिछड़ रहा था पर जैसे ही माओत्से तुंग के बाद उस ने कम्यूनिस्ट धर्म का लबादा फेंक दिया वह तरक्की की राह पर चल पड़ा और चीन आज प्रति व्यक्ति आय में कुलांचें भर रहा है हालांकि जापान और दक्षिणी कोरिया से वह बहुत पीछे है.

धर्म की जकड़नों की शिकार सब से ज्यादा औरतें होती हैं. उन्हें समाज जानबूझ कर धार्मिक ढकोसलों में फंसाए रखता है ताकि वे पुरुषों की गुलामी करती रहें और चुपचाप रसोईर् और बच्चों में फंसी रहें. पुरुष सोचते हैं कि उन्हें इस तरह सुख मिलता है पर असल में वे ही नुकसान में रहते हैं, क्योंकि एक तो औरतों की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है और दूसरे उन की बहुत सी शक्ति औरतों को कैदियों के रूप में रखने और खुद जेलर बने रहने में खर्च हो जाती है. कैदखानों में जेलरों और सिपाहियों को वेतन मिलता हो पर आय तो नहीं होती. इसी तरह धार्मिक जेल में औरतों को ठूंसने से पुरुष खुद अधकचरे रह जाते हैं.

जिन देशों में पिछले दशकों में निधर्मियों की गिनती बढ़ी है वे ज्यादा सुखी हैं, ज्यादा तरक्की कर रहे हैं. वियतनाम, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, साउथ अफ्रीका, आयरलैंड, कनाडा, आस्ट्रिया, जरमनी इस बात के सुबूत हैं. पिछले दशक में भारत ने खासी उन्नति की थी, क्योंकि 2004 के बाद धर्म का बोलबाला धीमा पड़ गया था और 1993 का राम मंदिर हल्ला कम हो गया था.

भारत में सरकार अब धर्म की सब से बड़ी दुकानदार बन गई है और इस का सीधा नुकसान औरतों को होता है. चाहे रामायण की सीता हो या महाभारत की द्रौपदी और राधा धार्मिक कारणों से ही उन्हें तरहतरह के कष्ट सहने पड़े और इन के  पति या प्रेमी औरतों के धर्मसम्मत स्थान को बचाने के लिए लड़ते फिरते रहे. उन्होंने विकास के कार्य किए हों, यह इन ग्रंथों में तो कहीं है नहीं.

धर्म से आजादी का अर्थ ही है मुंह खोलने और मनचाहा करने की आजादी. फिल्म ‘दंगल’ की गीता और बबीता जिन सामाजिक बंधनों के कारण बंधी थीं वे धर्म के दिए हुए हैं और अब कम से कम समाचारपत्र इन के असर की घटनाओं की रिपोर्ट तो कर देते हैं. कुछ समय पहले तक तो धार्मिक अत्याचार की शिकार औरतों की कहानियां खबरें तक नहीं बनती थीं, क्योंकि वह तो सामान्य बात थी.

पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई ने मुंह खोल कर कट्टरता पर तमाचा मारा पर धर्म इतना अक्खड़ है कि वह छोटीमोटी दुर्घटनाओं से डरता नहीं. भारत को उन्नति करनी है तो अंगरेजों, मुगलों, तुर्कों, अफगानों, शकों, हूणों के राज की जंजीरों से नहीं, बल्कि धर्म की जंजीरों से मुक्ति की कोशिश करनी होगी.

आज धर्म का बाजार गरम है और आर्थिक मटियामेट के आसार नजर आ रहे हैं. नोटबंदी और जीएसटी को योग के साथ धार्मिक अनुष्ठान के रूप में बेचा गया है और औरतों ने इस में जो खोया है या जो खोएंगी उस की गिनती करना असंभव है. इस का असर 4-5 साल बाद दिखेगा जब भारत एक पिछड़ा देश रह जाएगा और चीन (और उस का पिट्ठू पाकिस्तान भी) कहां के कहां होंगे.

 

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