नरेंद्र मोदी की सरकार गंगा का सफाई अभियान तो जोरशोर से चलाने का दावा कर रही है पर काशी पर लगे गहरे दाग व काशी की विधवाओं के बारे में उसे कुछ नहीं कहना. इस बार के लोकसभा चुनावों के दौरान काशी कई महीने चर्चा में रही और वहां की मिठाइयों, सांडों और गलियों की तो खूब चर्चा हुई पर हिंदू समाज की पाखंडता विधवाओं की देन नहीं, इस पर कहीं कोई बात नहीं हुई.

अब चाहे काशी और वृंदावन में छोटी और बड़ीबूढ़ी विधवाएं कम आती हों पर काशी आज भी घर में बेकार पड़ी विधवाओं का ठौर समझा जाता है, जहां ये विधवाएं तिलतिल कर मरती हैं.

महान हिंदू संस्कृति का ढिंढोरा पीटपीट कर हम अपनेआप को चाहे जितना श्रेष्ठ कह लें, ये विधवाएं असल में हमारी कट्टरता और अंधविश्वासों की देन हैं. अब देश में विधवाओं को जलाया तो नहीं जाता पर उन के साथ होने वाले दुर्व्यवहार कम नहीं हुए हैं. आम घरों में साल में कईकई बार धार्मिक प्रयोजन करवाने में पंडों की बरात सफल रहती है पर हर धार्मिक आयोजन में अगर घर में विधवा हो तो उस को कचोटा और दुत्कारा जाता है.

मजेदार बात तो यह है कि उन पंडितों को दोष नहीं दिया जाता जिन्होंने कुंडली मिला कर विवाह कराया और न ही उन देवताओं को जिन का आह्वान कर वरवधू को आशीर्वाद दिलवाया जाता है. इसी बुलावे का ही तो पंडेपुजारी कमीशन लेते हैं.

हिंदू समाज गंदी गंगा के साथ जी सकता है, क्योंकि अब घरों तक पहुंचने वाला पानी पहले शुद्ध कर लिया जाता है. पर वह उन सैकड़ों विधवाओं को कैसे सहन कर ले जो काशी, वृंदावन या घरों में तिरस्कृत जीवन जी रही हैं. जब विधुर शान से सीना फुलाए जी सकते हैं तो विधवाएं क्यों सफेद साड़ी पहनें और चेहरे की हंसी को दबा कर रखें?

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