खिड़की से आती रौशनी में बादामी पर्दे सुनहरी हुए जा रहे थे. मेरी नज़र  उनसे होते हुए ड्राइंगरूम में सजे हल्के-नीले रंग के सोफे, कांच की चमकती टेबल, शेल्फ पर सजे खूबसूरत शो पीसेस से वापस सामने बैठी अपनी बेटी अक्षिता के चेहरे पर टिक गई. मेरी पूरी कोशिश थी, कि मैं  टेबल पर रखे फोटोफ्रेम में उसकी बगल में लगे लड़के की फोटो न देखूं, किचेन के काउंटर पर अगल-बगल रखे 2 कॉफी मग्ज़...शूरैक में लगे मर्दाने जूतों और बैडरूम के दरवाज़े की झिर्री से झाँकते डबलबैड को न देखूँ. बगल में बैठे आनंद  के बमुश्किल दबाए हुए गुस्से की भभक भी महसूस न करूँ. पर ये सब मेरी कनपटी पर धमक पैदा कर रहे थे.

सामने बैठी अक्षिता...अपने दोस्त आयुष के साथ अपने लिव इन रिलेशनशिप में रहने के बारे में जाने क्या-क्या बताये जा रही थी...पर मैं उसकी बात समझने में लगातार नाकामयाब हुई जा रही थी. दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था और धड़कनें बेलगाम भाग रही थीं. मेरे चश्मे का कांच बार-बार धुंधला रहा था...पर उसे उतारकर पोंछने की ताकत नहीं थी. दिल मान ही नहीं पा रहा था, कि मेरी ये नन्ही सी बच्ची जो अभी कुछ ही वक्त पहले तक मेरी ऊँगली पकड़कर चलती थी मम्मा-मम्मा करती आगे-पीछे घूमती थी, अपने पापा से फरमाइशें करती ऊबती नहीं थी, बात-बात पर रो देती थी...क्या बाहर रह के नौकरी करते ही अचानक इतनी बड़ी हो गयी, कि इतना बड़ा कदम उठा बैठी. एक अनजान लड़के के साथ...वो भी बिना शादी किये.

मेरे गले में कुछ अटकने लगा. डबडबाती आँखें बरस पड़ने को आतुर होने लगीं. बगल में बैठे आनंद की लगातार बढ़ती  कसमसाहट बता रही थी...कि अब उनका गुस्सा अपनी हद तोड़ने ही वाला है.

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