लेखक- रोहित और शाहनवाज

26 जनवरी को दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान ‘असत्यापित’ खबर शेयर करने के चलते पत्रकारों पर लगाए गए गंभीर आरोपों, जिस में देशद्रोह जैसे संगीन आरोप भी शामिल हैं, के बारे में मीडिया और पत्रकारों की यूनियन बौडी ने 30 जनवरी को दिल्ली के प्रेस क्लब औफ इंडिया में एक प्रेस कौंफ्रेंस कर अपना विरोध दर्ज किया.

इस संयुक्त प्रैस कौंफ्रेंस का आयोजन प्रैस क्लब औफ इंडिया (पीसीआई), एडिटर्स गिल्ड औफ इंडिया, प्रैस एसोसिएशन, भारतीय महिला प्रैस कोर (आईडब्लूपीसी), दिल्ली यूनियन औफ जर्नलिस्ट्स (डीयूजे) और इंडियन जर्नलिस्ट्स यूनियन (आईजेयू) इत्यादि द्वारा किया गया था, जिस में कई मुख्य मीडिया पर्सनैलटीज भी शामिल थीं.

दरअसल, 28 जनवरी को उत्तर प्रदेश पुलिस और मध्य प्रदेश पुलिस ने ‘द कारवां’ के मुख्य संपादक परेश नाथ, संपादक अनंत नाथ और कार्यकारी संपादक विनोद के. जोस के साथ ‘नेशनल हेराल्ड’ की सीनियर कंसल्टिंग एडिटर मृणाल पांडे, ‘इंडिया टुडे ग्रुप’ के सीनियर पत्रकार राजदीप सरदेसाई, ‘कौमी आवाज’ के एडिटर जफर आगा, सांसद शशि थरूर द्वारा 26 जनवरी, 2021 को दिल्ली में ट्रैक्टर रैली के दौरान एक किसान की मौत पर असत्यापित ट्वीट करने के आरोप में यह एफआईआर दर्ज किया.

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उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा सेडिशन के साथ अन्य आरोप लगाए गए हैं, जबकि एमपी पुलिस ने दुश्मनी को बढ़ावा देने का मामला दर्ज किया है.

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बता दें, उन पर भारतीय दंड सहिता 1860 के तहत 124ए (देशद्रोह), 153ए (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना), 153बी (राष्ट्रीय-एकीकरण के लिए पूर्वाग्रह से जुड़े दावे) और अन्य धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है. इस मामले में कुल 11 धाराएं लगाई गई हैं, जिस में से 10 भारतीय दंड सहिता 1860 के तहत अंगरेजी हुकूमत से चलती आ रही हैं, जिस का विरोध समयसमय पर मानवाधिकारियों द्वारा होता रहा है. जिस पर आरोप लगता रहा है कि यह सरकार द्वारा अपने खिलाफ उठ रही आवाज को दबाने की साजिश का हिस्सा रहता है.

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बाद इस सिलसिले में इन के खिलाफ मामलों को आगे बढ़ाने वाला हरियाणा तीसरा राज्य बन गया है. ध्यान देने वाली बात यह है कि तीनों राज्यों में भाजपा सत्ता में है, वहीं केंद्र के अधीन दिल्ली पुलिस द्वारा भी इस के तहत मामला दर्ज किया जा चुका है.

पत्रकारों पर लगाए गए इन संगीन आरोपों के खिलाफ ‘एडिटर गिल्ड औफ इंडिया’ की तरफ से 29 जनवरी को एक प्रैस स्टेटमेंट भी जारी किया गया था, जिस में उन्होंने विभिन्न भाजपाई राज्यों के प्रशासन द्वारा किए गए इस कृत्य की कड़े शब्दों में निंदा की, जिस में उन्होंने यह मांग की, “एफआईआर को तुरंत वापस लिया जाए और मीडिया को बिना किसी भय और स्वतंत्रता के साथ रिपोर्ट करने की अनुमति दी जाए.”

उन्होंने आगे कहा, “हम अपनी पहले की मांग पर भी फिर से जोर देते हैं कि उच्च न्यायपालिका इस तथ्य को गंभीरता से संज्ञान में लें कि ‘देशद्रोह’ जैसे कानूनों का इस्तेमाल अकसर फ्रीडम औफ स्पीच को बाधित करने के लिए किया जाता है, जिस पर यह सुनिश्चित करने के लिए दिशानिर्देश जारी करें कि ऐसे कानूनों का उपयोग स्वतंत्र मीडिया के लिए उचित नहीं है.”

30 जनवरी को मीडिया से जुड़े यूनियनों ने इस विषय पर प्रैस कौंफ्रेंस की, जिस में अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ इस प्रकार के संगीन सेडिशन जैसे आरोपों का विरोध किया व प्रैस स्टेटमेंट जारी किया.

‘प्रैस क्लब औफ इंडिया’ के प्रैसिडेंट आनंद किशोर सहाय ने प्रशासन की इस कार्यवाही का विरोध किया और कहा, “सेडिशन एक ऐसा कानून है, जिस की जगह दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं होनी चाहिए.”

वे कहते हैं, “यह पहली बार नहीं है, जब पत्रकारों के साथ ऐसा हो रहा हो, इस से पहले भी विनोद दुआ, प्रशांत कनौजिया व अन्य के खिलाफ सेडिशन का चार्ज लगाया जा चुका है.

साल 2017-18, नेशनल कमीशन फौर रिसर्च पुलिस ब्यूरो के अनुसार, लगभग 70-80 लोगों पर हर साल सेडिशन का चार्ज लगाया जा रहा है. 20 राज्यों में लगभग 55 पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज हैं. कई मामले ऐसे हैं, जिन में पत्रकारों पर यूएपीए जैसे खतरनाक कानून लगाए गए हैं, जिन में बेल तक संभव नहीं है.”

एडिटर गिल्ड की प्रैसिडेंट सीमा मुस्तफा कहती हैं, “सेडिशन का कानून, जिसे पहले ही रद्द कर दिया जाना चाहिए था, उसे बेधड़क डराने और उत्पीड़ित करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, ताकि कोई सवाल न उठाया जा सके.”

वे आगे कहती हैं, “हर कोई पत्रकार जो फील्ड पर हैं, कनफ्लिक्ट कवर कर रहे हैं, जो सड़क पर हैं, हर किसी को पता है कि गलतियां हो सकती हैं. जब आप चश्मदीदों को आधार बना कर अपनी रिपोर्टिंग करते हैं, चाहे वह असम के गृह युद्ध में हो, 84 के दिल्ली दंगों में हो, उत्तर प्रदेश व बिहार की जातीय हिंसा पर हो, आप जानते हैं कि आप उन्हीं चश्मदीदों के बयान के आधार पर ही रिपोर्ट बना रहे हैं.

“आज के समय में जल्द से जल्द रिपोर्ट बनाने की होड़ है. इस में गलतियों की संभावना हो सकती है, लेकिन उस पर सेडिशन जैसा कानून लगा देना क्या सही है? जबकि यह पता हो कि बिना किसी सुनवाई के इस केस में आप को बंद किया जा सकता है.”

सीमा मुस्तफा कहती हैं, “यह सब इसीलिए हो रहा है ताकि पत्रकारों को डराया, धमकाया और उत्पीड़ित किया जा सके. इस के साथसाथ पेशेगत रूप से काम कर रहे इसी फील्ड के लोगों को आतंकित किया जा सके. आज एक फेसबुक पोस्ट से 3 जर्नलिस्ट्स पर ऐसे केस डाल दिए हैं, वहीं एक ट्वीट के कारण सेडिशन के चार्ज लगा दिए हैं. यह एक पैटर्न है, जिस का संदेश साफ है कि चुप हो जाओ.”

दिल्ली यूनियन औफ जर्नलिस्ट्स (डीयूजे) के प्रैसिडेंट एसके पांडे का मानना है कि प्रशासन की पत्रकारों पर यह कार्यवाही अघोषित आपातकाल का प्रतीक है. वे कहते हैं, “लोग पहले भी आपातकाल की स्थिति देख चुके हैं, हम और भी बदतर स्थिति की तरफ आगे बढ़ रहे हैं, जहां अगर आप उन शक्तियों के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो उन के द्वारा आप पर निशाना बनाया जाएगा. चाहे वह देशद्रोह के माध्यम से हो, या एफआईआर दर्ज करने के माध्यम से, ताकि आप लड़ने की इच्छा खो दें या मजबूर महसूस करें.”

भारतीय महिला प्रैस कोर (आईडब्लूपीसी) से विनीता कहती हैं, “सरकार और पत्रकारों की आपस में कभी दोस्ती नहीं हो सकती. पत्रकारों का काम सरकार को आईना दिखाना है. मैं सीपीजी का डेटा देख रही थी तो पता चला कि इजिप्ट, टर्की, चाइना और सऊदी अरबिया इन देशों में सब से ज्यादा पत्रकारों को जेल होती है और अब मुझे लगता है कि भारत भी उस लिस्ट में जल्द ही शामिल होने वाला है. अगर आप एक ट्वीट पर सेडिशन जैसा चार्ज लगाते हैं, तो आप पूरे जस्टिस सिस्टम का मजाक उड़ा रहे हैं. पुलिस को पत्रकारों पर तुरंत कोई न कोई सेक्शन ठोकने में एक मिनट का भी समय नहीं लगता. सरकार के पास ही अपने फोरम हैं, वे प्रैस कौंसिल, प्रैस एसोसिएशन में जा सकते हैं, जहां पर वो किसी पत्रकार की शिकायत कर सकते हैं. लेकिन इस में तो कोई सड़क चलता आदमी किसी भी पत्रकार पर सेडिशन जैसा चार्ज लगा देगा.”

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वे आगे कहती हैं, “हम कुछ समय से लगातार ही एक तरीके का पैटर्न देख रहे हैं. ऐसा लगता है कि सरकार ने पहले से ही चुनचुन कर लोगों को सलैक्ट किया हुआ है, जिन की एक गलती पर ही उन पर इस तरह से चार्जेज लगा दें. अगर हम सरकार की तारीफ और प्रशंसा के पुल नहीं बांध रहे तो हम आप के लिए बुरे हैं. हाल ही में उत्तर प्रदेश में ठंड में ठिठुरते बच्चों की सही रिपोर्टिंग करने के आरोप में 2 पत्रकारों पर यूएपीए का चार्ज लगा दिया. आप ने तो पूरे लौ सिस्टम का ही मजाक बना दिया है.”

इस बीच पत्रकार राजदीप सरदेसाई, जो उन पत्रकारों में से एक हैं, जिन के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है, ने भी देशद्रोह कानूनों के उदारवादी उपयोग की बात की और आलोचना की. उन्होंने कहा, “आप जम्मूकश्मीर या मणिपुर में पत्रकार हैं या कांग्रेसशासित राज्य में, राजद्रोह पत्रकारों के खिलाफ अस्वीकार्य आरोप है.”

हम ने इस पूरे मामले को ले कर एसएन सिन्हा से बात की, जो आल इंडिया वोर्किंग न्यूज कैमरामेन एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं. उन्होंने कहा, “जर्नलिस्ट आर नौट टेररिस्ट. जर्नलिस्ट का काम अथोरिटी से सवाल पूछना है. अगर हम सवाल पूछते हैं, तो हम पर सेडिशन का चार्ज लगा दिया जाता है. यह पूरा मामला कुछ इस प्रकार का है कि एक समय पर 4 तरह की खबरें आती हैं, हो सकता है कि एक वक्त तक आप को वह खबर लगे, लेकिन अंत में वह खबर न लगे, सेडिशन तो फिर भी नहीं बनता है. सेडिशन का कानून केवल लोगों को डराने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, ताकि वह सवाल न उठाए.”

वे आगे कहते हैं, “पहले के समय भी सरकारों ने इस कानून का इस्तेमाल किया है, पत्रकारों को चुप कराने के लिए पहले भी इस तरह के हथकंडे उपयोग किए गए हैं. लेकिन साल 2014 के बाद एक नया ट्रेंड चला है, जिस में सरकार दूसरी आवाज को सुनने को तैयार नहीं है. यह एक तरह से अथोरिटेरियन (अधिनायक) सरकार का स्टाइल है. पहले की सरकारें तो फिर भी लोगों की सुन लेती थीं, लेकिन यह सरकार तो किसी की भी सुनने को तैयार ही नहीं है.”

बता दें कि एसएन सिन्हा इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन के पूर्व अध्यक्ष भी रह चुके हैं.

वहीं हमारी बात जब सीनियर पत्रकार आशुतोष से हुई, तो उन्होंने बताया, “सेडिशन का चार्ज लगा कर सरकार पत्रकारों को दबाने का काम कर रही है. लेकिन अगर पत्रकार डर गए, तो लोकतंत्र सुरक्षित नहीं रहेगा. जो लोग सरकार के साथ हैं, उन पर किसी तरह का कोई ऐक्शन नहीं लिया जाता. वो चाहे सांप्रदायिकता फैलाएं, माइनौरिटीज को टारगेट करें, झूठ फैलाएं, नफरत का वातावरण पैदा करें, उन के खिलाफ कहीं कोई कानून नहीं है. जो सरकार के भोपूं बन जाएं वो फ्रीली घूम सकते हैं.”

वे आगे कहते हैं, “हमारे बीच के कुछ साथी सरकारी भोपूं बन चुके हैं, जिन्हें कुछ न कुछ फायदा सरकार से मिल ही रहा है. हम सरकार की चमचागिरी करने के लिए नहीं हैं, हम उन के अच्छे काम गिनवाने के लिए नहीं हैं, हम यह बताने के लिए हैं कि आप (सरकार) कहां क्या गलत कर रहे हैं.

बता दें कि इस कौंफ्रेंस में कई नामी और वरिष्ठ पत्रकार व वकील शामिल हुए, जिन में एनडीटीवी के मनोरंजन भारती व श्रीनिवास जैन, जय शंकर गुप्ता, शेखर गुप्ता, संजय हेगड़े व अन्य इत्यादि थे.

सरकार द्वारा निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों पर उत्पीड़न मुखर होता जा रहा है. इस का ज्वलंत उदाहरण हमारे सामने है. स्वतंत्र व ‘द कारवां’ के लिए लिखने वाले पत्रकार मंदीप पुनिया की घटना इसी की ही जीतीजागती मिसाल है. 30 जनवरी की शाम को किसानों के आंदोलन को लगातार कवर कर रहे मंदीप को दिल्ली पुलिस ने रात को धरनास्थल से ही गिरफ्तार कर लिया. उन के खिलाफ सेक्शन 186, 323 और 353 के तहत आरोप दर्ज किया गया है. इस के पहले एक अन्य पत्रकार धर्मेंद्र को भी हिरासत में लिया गया था, जिन्हें सुबह 5:30 बजे छोड़ा गया, लेकिन मंदीप अभी भी पुलिस हिरासत में ही हैं. जिस के बाद सरकार के इस दमन के खिलाफ अब पत्रकार समूहों से विरोध होना शुरू हो चुका है.

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