अक्षय तृतीया का पर्व पुजारियों द्वारा बड़ा पवित्र माना जाता है. कब से? यह निश्चित तौर पर कहा नहीं जा सकता. पंडेपुजारियों का कहना है कि इसी दिन उस कथित भगवान परशुराम का जन्म हुआ था जिस ने क्षत्रियों की हत्या की थी. भले ही किसी जाति विशेष के लिए परशुराम पूजनीय हों, पर उस के कृत्य से तो यही लगता है कि उस के हाथ खून से रंगे हैं. ऐसे पुरुष को किस रूप में समझा जाना चाहिए? जनता फैसला करे. ‘अक्षय तृतीया’ के दिन गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ था. इस दृष्टि से भी इस को पवित्र दिन माना जाता है. क्या गंगा जमीन पर उतर कर पछता नहीं रही होगी? बनारस में गंगा की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है. पूरे शहर का कचरा इसी पवित्रपावनी गंगा में मिलता है. तमाम धोबीघाट बने हैं पर धोबियों को स्वच्छंद अठखेलियों का आनंद यहीं मिलता है.

गंगा के किनारे घाटों पर, जहां लोग नहाते हैं, वे मालाफूल, काई से पटे रहते है. सैकड़ों लोग घाटों की सीढि़यों पर बैठ कर नहातेधोते, खांसतेखंखारते हैं. अपने मुंह की सारी गंदगी वहीं उड़ेलते हैं, फिर हाथों से मार कर दूसरी तरफ ढकेल देते हैं. आगे का आदमी इसी पानी को मुंह में भर कर कुल्ला करता है तथा खांसखंखार कर अपना कफ दूसरे के लिए आगे बढ़ाता है. इस तरह देखें तो गंगा संक्रामक रोगों के संवाहक का काम करती है. तिस पर तुर्रा यह है कि गंगा में नहाने से मुक्ति मिलती है. इसीलिए मेरा मानना है कि मुक्ति तो दूर, रोगों की संवाहक गंगा, चैन से जीने भी नहीं देगी. अक्षय तृतीया के दिन दानपुण्य की बात कही गई है. लोग गंगा स्नान के बाद पंडेपुजारियों को सत्तू, दही, पंखा, शर्करा, जूता, छाता आदि का दान करते हैं. ये सब वस्तुएं हमें लू और गरमी से बचाती हैं. धर्मभीरु जनता भले ही लू से मर जाए पर पंडेपुजारियों को पेट काट कर, दान अवश्य दे. दान लेने वाला पंडा/पुजारी कभी नहीं पूछता, ‘यजमान, क्या तुम्हारे पास ये चीजें हैं?’ भला, वह क्यों पूछेगा? यजमान मरे या जीए. सत्तू वह खाएगा. दही वह पीएगा. जूता वह पहनेगा ताकि गरम जमीन पर पैर न जलें. छाता वह लगाएगा, जिस से धूप से बच सके. पंखा वह डुलाएगा ताकि गरमी न लगे.

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