देश में जब कोरोना के कारण लौकडाउन लगा था तब बाहर जाने की सख्त मनाही थी. जैसे ही लौकडाउन की स्ट्रिक्टनैस को कम किया गया तो लोग शहरों से होमटाउन की तरफ जाने लगे थे, उस दौरान मेरे भी कुछ दोस्त जो पीजी में रहते थे, अपने होमटाउन की तरफ गए. मुझे भी होमटाउन जाने की काफी इच्छा थी लेकिन यहां ठहरना ज्यादा ठीक समझ. मगर उस दौरान एक बदलाव मेरे भीतर भी आया था. ज्यादा इंटरनैट चलाने की वजह से मेरे मन में हर समय कुछ सवाल घूमने लगे. सोशल मीडिया में क्या चल रहा है? वे दोस्त क्या कर रहे हैं? आज उन्होंने कौन सी पोस्ट डाली है? खुले आसमान में हरे खेतों के बीच खुले में घूम रहे हैं और स्टोरी डाल रहे हैं या नहीं? उन्हें कितने लाइक और शेयर आए हैं? इत्यादि.

यह सब मन में लगातार चलता रहता. अगर किसी दिन कुछ मिस हो जाता तो लगता गड़बड़ हो गई. हमेशा यह सोचता कि मैं ने गांव जाना मिस कर दिया वरना मैं भी ऐसे ही एंजौय कर रहा होता. यही बातें घबराहट पैदा करतीं और मैं और भी ज्यादा उन की डेली एक्टिविटीज को देखता रहता व डिप्रैस्ड हो जाता. इस का जो नतीजा निकला वह यह था कि मैं ने अपनी एंजौय करती हुई फोटो डालनी शुरू कर दीं. कभी घर में नई डिश बनाते हुए, तो कभी साफसफाई करते हुए ऐसी फोटो डालीं जैसे यह दूसरे प्लेनेट का कोई काम हो. 2013 में इस कंडीशन को पहली बार औक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ने ‘फोमो’ के नाम से परिभाषित किया था.

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