मुझे आज भी अच्छी तरह याद है, आन्या मेरी बेटी एक बार मुझसे थोड़ी झल्लाते हुए बोली,

" मम्मी, ये हरीश अंकल रोज-रोज हमारे घर क्यूं आतें हैं".

इतनी छोटी-सी बच्ची को क्या और कैसे समझाऊं कि उसने अपने पिता को अपने जनम के महिने भर बाद ही खो दिया था. हरीश जी हमारे पड़ोसी थे. वे विधुर थे. सज्जन इंसान भी थे. मैं और आन्या केवल दो ही प्राणी परिवार में थे. हरीश जी और मैं अपने-अपने परिवार की जिम्मेदारियां बखूबी निभा रहे थे. एक दूसरे के दुख - सुख में काम आते और जीवन की गाड़ी  खींच रहे थे. हरीश जी से मेरा मन काफी मिलता था. कभी - कभी इकट्ठे बैठ जाते और इधर-उधर की, आपस के दुख -सुख की बातें कर जी हल्का कर लिया करते. एक बार हरीश ने लिव-इन-रिलेशनशिप का प्रस्ताव मेरे सामने रखा .

"यह मुमकिन  नहीं है. आपके और मेरे दोनों के बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. पति को तो खो ही चूकी हूं. अब किसी भी कीमत पर आन्या को नहीं खोना चाहती .हरीश जी, हमदोनों एक दूसरे के काम आ रहे हैं, यह काफी है ."

फिर कभी दूसरी बार उन्होंने यह बात नहीं उठाई .उन्हें भी अपने दोनों बच्चों का भविष्य प्यारा था.

शनैः शनैः समय का पहिया घूमता रहा और आन्या अपनी पढ़ाई  पूरी कर नौकरी करने लगी.ऑफिस पहुंचने में करीब एक सवा घंटा बस से आन्या को लगता.

"मम्मी, मैं बहुत थक जाती हूं. समय भी रास्ते मे काफी निकल जाता है .पास में घर रहता तो एक्स्ट्रा काम भी करती और ज्यादा पैसे कमा पाती."

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