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ट्रेन के एयरकंडीशंड कोच में मैं ने मुंह धो कर सिर उठाया. बेसिन पर  लगे आईने में एक चेहरा और नजर आया जो कभी मेरा बहुत अपना था. बहुत प्यारा था. आज वक्त की दूरी बीच में बाधक थी. एक पल में मैं ने सोच लिया था कि मुझे क्या करना है. ब्रश उठा टौवल से मुंह पोंछते हुए अजनबियों की तरह उस के करीब से गुजरते हुए अपनी सीट पर आ कर बैठ गई. नाश्ता आ चुका था.

मैं ने ट्रे सामने रख कर नाश्ता करना शुरू कर दिया. कान उस की तरफ लगे हुए थे पर मिलने की या देखने की ख्वाहिश न थी.

कुछ देर बाद मुझे महसूस हुआ कि वह मेरी सीट के करीब रुकी है, मुझे देख रही है. मैं ने उचटती सी नजर उस पर डाली. उस के चेहरे पर उम्र की लकीरें, एक अजब सी थकन, सबकुछ हार जाने का गम साफ नजर आ रहा था. मैं नाश्ता करती रही. कुछ लमहे वह खड़ी रही, फिर अपनी सीट की तरफ बढ़ गई.

मैं ने चाय पी कर अधूरा नौवेल निकाला और खिड़की से टेक लगा कर पढ़ना शुरू कर दिया. पर किताब के शब्द गायब हो रहे थे. उन की जगह यादों की परछाइयां हाथ थामे खड़ी थीं. मेरा अतीत किसी जिद्दी बच्चे की तरह मेरी उंगली खींच रहा था, ‘चलो एक बार फिर वही हसीन लमहे जी लें,’ और न चाहते हुए भी मेरे कदम जानीपहचानी डगर पर चल पड़े...

हम 2 ही बहनें थीं. मैं बड़ी और मुझ से 12 साल छोटी आबिया. मम्मीपापा ने बड़े प्यार से हमारी परवरिश की थी. बेटा न होने का उन्हें कोई गम न था. मेरी पढ़ाई की हर जरूरत पूरी करना उन दोनों की खुशी थी. पढ़ने में मैं काफी अच्छी थी. शहर के मशहूर कौन्वैंट में पढ़ रही थी. जब मैं 8वीं में थी तो आबिया का जन्म हुआ था. उस की पैदाइश के बाद से मम्मी की कमर और घुटने में दर्द रहने लगा. धीरेधीरे आबी की सारी जिम्मेदारियां मुझ पर आती गईं.

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