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मध्यवर्ग के विवेक और विनीता अपनी इकलौती बेटी उर्वशी और वृद्ध मातापिता के साथ बहुत ही सुकून के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे. परिवार छोटा ही था, घर में जरूरत की सभी सुखसुविधाएं उपलब्ध थीं. ज्यादा की लालसा उन के मन में बिलकुल नहीं थी. यदि कोई चाहत थी तो केवल इतनी कि अपनी बेटी को खूब पढ़ालिखा कर बहुत ही अच्छा भविष्य दे पाएं.

उर्वशी भी अपने मातापिता की इस चाह पर खरा उतरने की पूरी कोशिश कर रही थी. 10 वर्ष की उर्वशी पढ़ने में होशियार होने के साथ ही खेलकूद में भी बहुत अच्छी थी और जीत भी हासिल करती थी. वह स्कूल में सभी टीचर्स की चहेती बन गई थी.

विनीता अपनी बेटी की पढ़ाई की तरफ बहुत ध्यान देती थी. उसे रोज पढ़ाना उस की दिनचर्या का सब से महत्त्वपूर्ण कार्य था. विवेक औफिस से आने के बाद उसे खेलने बगीचे में ले जाते थे. रात को अपने दादादादी के साथ कहानियां सुन कर उस के दिन का अंत होता था. इस तरह से उस की इतने अच्छे संस्कारों के बीच परवरिश हो रही थी.

उर्वशी 5वीं कक्षा में थी, वह प्रतिदिन बस से ही स्कूल आतीजाती थी. विनीता रोज उसे बस में बैठाने और लेने आती थी. यदि किसी दिन बस आने में थोड़ी भी देर हो जाए तो विनीता बस के ड्राइवर को फोन लगा देती थी.

बस से उतरते ही उर्वशी अपनी मां को समझती, ‘‘अरे मम्मी कभीकभी किसी बच्चों की मांएं आने में देर कर देती हैं, इसलिए देर हो जाती है. जब तक बच्चों की मांएं नहीं आतीं तब तक छोटे बच्चों को बस से नीचे भी नहीं उतरने देते. आप क्यों चिंता करती हो? हमारी बस में और स्कूल में सब लोग बहुत अच्छे हैं.’’

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