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अपनेगोरेचिट्टे हाथों को जोड़ कर, बिल्लोरी आंखों में मुसकान का जादू भर कर, सुनहरी पलकों को हौले से ?ाका कर जब उस ने कहा, ‘‘नैमेस्टे मम्मीजी,’’ तो सुजाता का मन बल्लियों उछलने लगा. उन के दिल की धड़कनें इतनी तेज हो गईं कि वह क्षण भर के लिए भूल गई कि वह अनुपम सुंदरी केवल लैपटौप के स्काइप के चमत्कार से प्रगट होने वाली एक छवि भर थी जिस से वे अपने बेटे राहुल से बहुत अनुनयविनय करने और अपने पति कुमार साहब के बहुत सम?ानेबु?ाने पर बात करने को तैयार हुई थीं. पर उस की एक शरमाती हुई ‘नैमस्टे’ ने उन का सारा संताप, सारे गिलेशिकवे धो कर रख दिए.

काश, वह हाड़मांस की काया में उन के सामने रही होती तो वे उसे अपने अंक में भर लेतीं, अपनी दोनों हथेलियों को मोड़ कर अपने कानों के ऊपर घुमा कर उस की वैसे ही बलैयां लेती जैसी कुमार साहब की माताजी यानी उन की अपनी सास ने 32 वर्ष पहले उन की ली थी. वह क्षण उन की आंखों के सामने सजीव हो उठा जब तेल के भरे हुए कटोरे को लजातेलजाते ठोकर लगा कर उलटने के बाद उन्होंने कुमार परिवार के घर की देहरी के अंदर प्रवेश किया था.

उन्हें रोमांच सा हो आया. लगा जैसे उन के घर के सामने लगे छोटे से लौन के टुकड़े पर स्वर्ण उत्तर आया और पृष्ठभूमि में कहीं शहनाई के स्वर गूंजने लगे. वे इतना भावविव्हल हो गई कि उस की मुसकराती हुई, मनुहार करती हुई मुद्रा में की गई ‘नेमेस्टे’ के उत्तर में दो वचन भी नहीं निकल सके.

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