कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

पल्लवी मालती को बड़े ध्यान से सुन रही थी. सोच रही थी कि आज की पीढ़ी का होने पर भी अपने धर्म के विरोध में कुछ कहने का इतना साहस उस में नहीं था जितना अम्माजी बेधड़क कह गईं. मैं ने एमबीए किया हुआ है, जौब भी करती हूं पर धर्म का एक डर मेरे अंदर भी कहीं बैठा हुआ है. सोनाक्षी भी कालेज में है. उस ने 72 सोमवार के व्रत केवल पापाजी के डर से नहीं रखे, बल्कि खुद अपने भविष्य के डर से भी, अपने विश्वास से रखे हैं.

‘‘अम्मा, आप ही राधे महाराज से बात कर लीजिए,’’ क्षितिज बोला.

‘‘मैं करूंगी तो उन्हें शर्म आएगी लेने में, उन से उम्र में मैं काफी बड़ी हूं. क्षितिज, तुम ही अपनी तरफ से बात कर लेना, यही ठीक रहेगा.’’

‘‘ठीक है अम्मा, आज ही शाम को बात कर लूंगा वरना हफ्तेभर की छुट्टी की अरजी दी तो औफिस वाले मुझे सीधा ही बैकुंठ भेज देंगे,’’ कह कर क्षितिज मुसकराया.

एक नहीं, ऐसी अनेक घटनाएं व पूजा आएदिन घर में होती रहतीं, जिन में श्यामाचरण के अनुसार राधे महाराज की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती. राधे महाराज से पहले उन के पिता किशन महाराज, श्यामाचरण के पिता विद्याचरण के जमाने से घर के पुरोहित हुआ करते थे. जरा भी कहीं धर्म के कामों में ऊंचनीच न हो जाए, विवाह, बच्चे का जन्म, अन्नप्राशन, मुंडन कुछ भी हो, वे ही संपन्न करवाते, आशीष देते और थैले भरभर कर दक्षिणा ले जाते.

इधर, राधे महाराज ने शुभमुहूर्त और शुभघड़ी के चक्कर में श्यामाचरण को कुछ ज्यादा ही उलझा लिया था. कारण मालती को साफ पता था, बढ़ते खर्च के साथ बढ़ता उन का लालच, जिसे श्यामाचरण अंधभक्ति में देख नहीं पाते. कभी समझाने का प्रयत्न भी करती तो यही जवाब मिलता, ‘‘तुम तो निरी नास्तिक हो मालती, नरक में भी जगह नहीं मिलेगी तुम को, मैं कहे दे रहा हूं. पूजापाठ कुछ करना नहीं, न व्रतउपवास, न नियमधरम से मंदिरों में दर्शन करना. घर में जो मुसीबत आती है वह तुम्हारी वजह से. चार अक्षर ज्यादा पढ़लिख गई तो धर्मकर्म को कुछ समझना ही नहीं.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...