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मां के सो जाने के बाद उन्होंने भी लुकछिप कर एक बार फिर उस के पत्र को ढूंढ़ कर पढ़ने की कोशिश की होगी. आंखें भर आई होंगी तो इधरउधर ताका होगा कि कहीं कोई उन्हें रोते हुए देख तो नहीं रहा. मां ने पिता की इस कमजोरी को पहचान कर पहले ही वह पत्र ऐसी जगह रखा होगा, जहां वह चोरीछिपे ढूंढ़ कर पढ़ सकें क्योंकि सब के सामने उस पत्र को बारबार पढ़ना उन की मानप्रतिष्ठा के विरुद्ध होता और इस बात का प्रमाण होता कि वह हार रहे हैं.

ज्योति अनमनी सी नित्य बच्चों को पढ़ाने स्कूल जाती थी. घर लौट कर देखती थी कि कहीं पत्र तो नहीं आया. धीरेधीरे 10 दिन बीत गए थे और आशा पर निराशा की छाया छाने लगी थी.

एक दिन रास्ते में वही हितैषी महेंद्र अचानक मिल गए थे. उन के हाथ में एक लिफाफा था. उस पर लिखी अपने पिता की लिखावट पहचानने में उसे एक पल भी न लगा था.

‘‘बेटी, डाक से यहां तक पहुंचने में देर लगती, इसलिए मैं खुद ही पत्र ले कर चला आया...खुश है न?’’ महेंद्र ने पत्र उसे थमाते हुए कहा.

स्वीकृति में सिर झुका दिया था ज्योति ने. होंठों से निकल गया था, ‘‘कोई मेरे बारे में पूछने घर से आया तो नहीं था?’’

‘‘नहीं, अभी तक तो नहीं आया. और आएगा भी तो तेरी बात मुझे याद है, घर के सब लोगों को भी बता दिया है. विश्वास रखना मुझ पर.’’

‘‘धन्यवाद, दादा.’’

महेंद्र ने ज्योति के सिर पर हाथ फेरा. बहुत सालों बाद उस स्पर्श में उसे अपने मातापिता के हाथों के स्पर्श जैसी आत्मीयता मिली. पत्र पाने की खुशी में यह भी भूल गई कि वह स्कूल की ओर जा रही थी. तुरंत घर की ओर लौट पड़ी.

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