आजअकेले कार चलाने का अवसर मिला है. ये औफिस गए हुए हैं, मुक्कू बिटिया कालेज और मैं चली अपनी बचपन की सहेली से मिलने. अकेले ड्राइव पर जाने का आनंद कोई मुझ से पूछे. एसी के सारे वेंट अपने मुंह की ओर मोड़ कर कार के स्पीकर का वौल्यूम बढ़ा कर उस के साथ गाते हुए कार चलाने का मजा ही कुछ और होता है. एक नईर् ऊर्जा का संचार होने लगता है मुझ में. कितनी बार तो मैं ट्रैफिक सिगनल पर खड़ी कार में बैठीबैठी थोड़ा नाच भी लेती हूं. हां, जब पड़ोस की कारों के लोग घूरते हैं तो झेंप जाती हूं.

ड्राइविंग का कीड़ा मेरे अंदर शुरू से कुलबुलाया करता था. कालेज में दाखिला मिलते ही मेरा स्कूटी चलाने को जी मचलने लगा. मम्मीपापा के पास भी अब कोईर् बहाना शेष न था. मैं वयस्क जो हो गई थी. अब तो लाइसैंस बनवाऊंगी और ऐश से स्कूटी दौड़ाती कालेज जाऊंगी.

फिर भी मम्मी कहने लगीं, ‘‘खरीदने से पहले स्कूटी चलाना तो सीख ले.’’

‘‘ओके, इस में क्या परेशानी है. मेरी सहेली गौरी है न. अपनी स्कूटी पर उस ने कितनी बार मुझे पीछे बैठाया है. कई बार कह चुकी है कि एक बार हैंडल पकड़ कर फील तो ले. लेकिन इस बार जब मैं ने उस से मुझे स्कूटी सिखाने की बात कही तो वह बोली, ‘‘पर तुझे तो साइकिल चलानी भी नहीं आती है आकृति?’’

‘‘तो मुझे साइकिल नहीं स्कूटी चलानी है. तू सिखाएगी या नहीं यह बता?’’

‘‘नाराज क्यों होती है? सिखाऊंगी क्यों नहीं. पर पहले तू साइकिल चलाना सीख ले… तेरे लिए स्कूटी चलाना आसान रहेगा.’’

‘‘अब साइकिल कहां से लाऊं?’’

मेरी यह उलझन भी गौरी ने दूर कर दी. तय हुआ कि

पहले मैं उस की छोटी बहन की साइकिल चलाना सीखूं और फिर उस की स्कूटी.

साइकिल चलाना सीखना शुरू तो कर दिया पर हर बार बैलेंस बनाते समय मैं गिर पड़ती थी. एक बार पड़ोसिन रमा आंटी बोल पड़ीं, ‘‘आकृति, तुम्हें साइकिल चलानी नहीं आएगी, रहने दो. बेकार में कहीं लग न जाए, लड़की जात हो, चेहरा बिगड़ना नहीं चाहिए.’’

उन की इस बात ने मेरा मनोबल ही तोड़ दिया. कितना अच्छा होता कि आंटी मेरा हौसला बढ़ातीं, लेकिन उन्होंने मुझे निराश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

कुछ दिन हतोत्साहित होने के बाद जब मैं ने छोटेछोटे बच्चों को साइकिलें दौड़ाते देखा तो मेरे अंदर पुन: उम्मीद जाग उठी. मैं ने भी साइकिल सीख कर ही दम लिया. पहले साइकिल की सीट नीचे कर के, पांव जमीन पर टिका कर कौन्फिडैंस बनाया. फिर एक बार बैलेंस करना और फिर साइकिल चलाना सीख गई.

अब नंबर था स्कूटी का. मम्मी को मैं अपनी प्रोग्रैस से खबरदार करना न भूलती थी. उन्हीं से स्कूटी जो खरीदवानी थी. लेकिन पापा ने भांजी मार दी. कहने लगे, बिना गीयर का कोई स्कूटर होता है भला. जिद पर अड़ गए कि गीयर वाला स्कूटर ही दिलवाएंगे. लेना है तो लो वरना कालेज जाने के लिए मंथली बस पास बनवा लो. कितनी मिन्नते कीं पर पापा टस से मस न हुए. हर बार एक ही बात कह देते, ‘‘बेटा, मैं तेरे भले के लिए कह रहा हूं. गीयर वाला स्कूटर चलाने की फील ही अलग है. गीयर वाले स्कूटर के बाद कार चलाने में भी आसानी रहेगी…’’ न जाने क्याक्या दलीलें देते, लेकिन मेरी समझ में एक बात आ गई थी वह यह कि स्कूटी का पत्ता कट चुका था.

मैं बड़ी निराश थी, ‘‘अब किस से सीखूंगी मैं? गौरी के पास स्कूटी है, गीयर वाला स्कूटर नहीं.’’

‘‘अरे, तू परेशान क्यों होती है? मैं हूं न, मैं सिखा दूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, आप डांटोगे और मेरा कौन्फिडैंस खत्म कर दोगे. याद नहीं मुझे मैथ्स कैसे पढ़ाते थे? इतना डांटते थे कि आज तक मेरे मन से मैथ्स का डर नहीं गया. मुझे किसी और से सीखना है,’’ मेरी भी जिद थी.

मेरी इस जिद के आगे पापा को झुकना पड़ा, ‘‘अच्छा ठीक है, तो फिर जिस शोरूम से स्कूटर लेंगे, वहीं के मैकैनिक से कह कर सिखवा दूंगा तुझे.’’

वह दिन भी आ गया जब मैं और पापा स्कूटर लेने शोरूम पहुंचे. मुझे पिस्तई हरा रंग पसंद आया. स्कूटर लिया और साथ ही मैचिंग हैलमेट भी. पेमैंट करते समय पापा ने शर्त रखी कि कोई मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाना सिखा दे. तब तय हुआ कि 2 दिनों में मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाने के गुर सिखा देगा, फिर प्रैक्टिस करना मेरा काम.

पहली ट्रेनिंग उसी दिन हुई. मैकेनिक राजू ने मुझे स्कूटर के कलपुरजों से वाकिफ करवाया. फिर शोरूम के सामने वाले मैदान में स्कूटर ले जा कर मुझे ड्राइविंग सीट पर बैठाया और खुद पीछे बैठा. स्कूटर का हैंडल उसी के हाथों में था. उस ने स्कूटर स्टार्ट किया, और फिर मुझे पहला गीयर डाल कर दिखाया. क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा. मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा.

मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर भी दिखा दिया. अब स्कूटर का हैंडल संभालने की मेरी बारी थी. साइकिल से विपरीत स्कूटर का हैंडल एकदम सधा रहता है. डगमगाने का कोई डर ही नहीं, मैं आश्वस्त हो गई. पापा का डिसीजन मुझे सही लगने लगा. पहले दिन मैदान में चक्कर लगा कर हम घर लौट आए.

अगले दिन दूसरी और आखिरी क्लास के लिए शोरूम जाना था. पापा को मेरे उत्साह पर हंसी आ रही थी. आज की ट्रेनिंग राजू भाई सड़क पर लेना चाहता था ताकि मैं ट्रैफिक में भी सीख सकूं. सड़क तक स्कूटर राजू चला कर ले गया और वहां पहुंच कर मेरे हवाले करने लगा.

‘‘प्लीज, आप भी बैठे रहो न,’’ इतना ट्रैफिक और शोरगुल देख मैं थोड़ा डर गई.

मेरी रिक्वैस्ट पर राजू मेरे पीछे बैठ गया परंतु हैंडल से ले कर गीयर तक आज सब काम मुझे ही करने थे. मैं किक मारूं, लेकिन स्कूटर स्टार्ट ही न हो. राजू ने मुझे किक लगाने का सही तरीका बताया. अब की बार मुझ से किक लग गई. स्कूटर स्टार्ट कर मैं ने पहले गीयर में डाला और धीरेधीरे क्लच छोड़ते ही वह चलने लगा. वाह, मैं स्कूटर चला रही थी. लेकिन तभी साइड से जाती एक गाड़ी ने हौर्न बजाया और मैं डर गई. इतना डर गई कि चलते स्कूटर से उतर गई, किंतु उस का हैंडल नहीं छोड़ा. दोनों हाथों से हैंडल पकड़े मैं स्कूटर के संग भागने लगी.

अब डरते की बारी राजू की थी. मेरी इस हरकत पर उस ने फौरन ब्रेक लगाया. बाद में मुझे ऐसा डांटा कि पूछो मत. आज याद करती हूं तो हंसी आती है लेकिन सोचा जाए तो राजू की बात एकदम सही थी. चलती सड़क, पूरा ट्रैफिक, उस पर मैं चलते स्कूटर से उतर गई और संग भागने लगी. बड़ा ऐक्सीडैंट हो सकता था. चूंकि राजू साथ थे तो पापा या शोरूम के मालिक तो उन्हें ही जिम्मेदार ठहराते. राजू ने कानों को हाथ लगा कर मुझ से तोबा कर ली.

खैर, ड्राइविंग तो मुझे सीखनी ही थी पर अब मेरा कोई गौडफादर न था. मुझे आज भी याद है वह वसंत ऋतु की शाम. मौसम कितना खुशगवार था. दिल्ली में फरवरी से अच्छा मौसम शायद ही सालभर में कभी होता है. पर इतने खुशनुमा मौसम में भी मेरे चेहरे पर पसीना आ रहा था.

अपनी गली में हैलमेट लगा कर बहुत डरते हुए मैं ने स्कूटर को थामा. किक लगाई और धीरे से चलाना शुरू किया. 200 मीटर ही चली थी कि सामने से एक बाइक को अपनी ओर आता देख मैं फिर डर गई और सीधे हाथ से रेस कम करने के बजाय गलती से बढ़ा दी. फिर क्या था. स्कूटर उछलता हुआ भागा और सामने खड़ी एक कार से जा टकराया. मैं दर्द से कराह उठी. रोती हुई मैं घर आ गई. स्कूटर को महल्ले के लोगों ने घर पहुंचाया था. बस, वह मैं ने आखिरी बार स्कूटर चलाया था.

मगर ड्राइविंग के मेरे शौक को आराम न मिला. स्कूटर के बाद कार का नंबर लगा. कार चलाना सीखने की कहानी भी बड़ी मजेदार है. सुनेंगे?

कार सीखने तक मैं नौकरी करने लगी थी. मेरे मन में कार चलाने की इतनी तीव्र इच्छा जागने लगी कि मैं सपने में भी कार चलाया करती. जी हां, वह भी हर रात. जब प्रोफैशनल ड्राइविंग स्कूल से कार चलाना सीखना शुरू किया तो पहले दिन ट्रेनर ने मुझ से कहा, ‘‘लगाओ.’’

‘‘मैं ने पूछा, क्या?’’

‘‘गीयर, और क्या?’’

‘‘मुझे क्या पता कैसे लगाते हैं? बताओ तो सही.’’

मेरे उत्तर पर उस ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘तो क्या बिलकुल चलानी नहीं आती?’’

‘‘अगर आती तो सीखती क्यों?’’ मेरे इस उत्तर पर वह हंस पड़ा था. फिर उस ने बहुत अच्छी ट्रेनिंग दी. मुझे आज भी याद है कि शुरू में जब कार को रोकना होता था तो मैं स्ट्रैस में आ कर स्टीयरिंग व्हील कस कर पकड़ लेती. एक बार वह बोला, ‘‘कार इसे पकड़ने से नहीं रुकती.’’

आज भी उस की कही इस बात पर हंसी आती है. हां, उस की इस बात से मैं स्ट्रैस फ्री हो कर कार चलाना जरूर सीख गई.

मगर जिंदगी में एक बार ऐसी गलती कर बैठी थी जिस के बाद शायद कोई और होती तो कार को चलाने की हिम्मत फिर कभी न करती. बहुत पुरानी बात है, मुक्कू छोटी सी थी, गोदी में. मुझे आज भी साफसाफ याद है…

‘‘औरतें गाड़ी चलाती ही क्यों हैं?’’

‘‘जब चलानी नहीं आती तो कार ले कर निकलने की क्या जरूरत थी भला?’’

‘‘कैसी मां है… कलयुग है.’’

‘‘हा… हा… हा… अरे भाई यों ही नहीं डरते हम औरतों को ड्राइविंग सीट पर बैठे देख कर.’’

‘‘जरूर फोन में ध्यान होगा. इन फोनों ने तो दुनिया बिगाड़ कर रख दी.’’

जितने मुंह थे, उतनी बातें. दिल तो कर रहा था चीख कर सब की बातों का मुंहतोड़ जवाब दे डालूं. बता दूं सब को कि मैं कितनी अच्छी, सेफ और सधी हुई कार ड्राइव करती हूं. करीब 12 साल हो गए मुझे कार चलाते. इन सालों में 4 कारें बदली मैं ने और आज तक एक खरोंच नहीं आने दी मैं ने अपनी किसी भी कार की बौडी पर वह भी दिल्ली के ट्रैफिक में. लेकिन इस वक्त मेरी प्राथमिकता इन लोगों की बकवास नहीं, अपनी बच्ची थी जो मेरी गलती से कार में लौक हो गई थी.

नन्ही मुक्कू का चेहरा लाल पड़ता जा रहा था. हालांकि वह मुसकरा रही थी… शांत भी थी… उस के चेहरे या हावभाव से नहीं लग रहा था कि उसे कोई परेशानी हो रही है… पर उस का बदलता रंग… मेरी गोरी सी गुडि़या तांबाई होती जा रही थी. उस के पूरे शरीर पर उभर आई पसीने की बूदें उस के भीगे होने का एहसास करा रही थीं… मुक्कू की हालत देख मेरा भी हाल खराब हो रहा था. कितनी बड़ी गलती हो गई मुझ से आज, मेरे आसपास भीड़ जमा हो चुकी थी. हरकोई कार के अंदर झांकता, फिर मेरी ओर देखता. भीड़ खुसफुसा रही थी, आदमीऔरतें सभी.

मैं ने इन्हें फोन किया, ‘‘सुनो, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. मुक्कू को ले कर मार्केट के लिए निकली थी. सामान कार की बैक सीट पर रख, मुक्कू को पीलीयन सीट पर रखी उस की कार सीट में एडजस्ट किया और न जाने किस बेध्यानी में मुक्कू से खेलते हुए कार की चाबी उसे खेलने को पकड़ा दी. उस की चेन बहुत पसंद है न मुक्कू को. वह हंस रही थी. मैं ने उस की तरफ का डोर लौक किया और जैसे ही ड्राइवर डोर की ओर पहुंची तो मेरी घंटी बजी कि चाबी तो मैं ने अंदर ही लौक कर दी,’’ मैं एक ही सांस में बोलती चली गई.

‘‘मुक्कू कहां है?’’ इन का पहला रिस्पौंस था. आखिर अपनी 7 महीने की बच्ची के लिए कौन पिता चिंतित नहीं होगा.

‘‘मुक्कू अंदर ही है,’’ मैं रोने लगी, ‘‘इतनी गरमी में न जाने क्या हाल हो रहा होगा मेरी बच्ची का. लाल पड़ती जा रही है… पसीनापसीना हो गई है…’’

‘‘तो कार का शीशा तोड़ो और उसे बाहर निकालो फौरन. मैं अभी औफिस से निकल रहा हूं.’’ इन्होंने हल सुझाया.

मैं ने यही हल वहां खड़ी जनता को बताया, तो कुछ लोग कहने लगे, ‘‘शीशा तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है. बेकार नुकसान होगा और अगर बच्चे को शीशे के टुकड़े लग गए तो?’’

‘‘हां, एक स्केल लाओ तो मैं अभी दरवाजा खोले देता हूं.’’

फिर स्केल लाया गया और वह काफी देर तक दरवाजा खोलने की नाकाम कोशिश करता रहा.

‘‘भाई, ऐसा पुरानी गाडि़यों में हो पाता था. नई कारों में यह तरकीब न चलती.’’

‘‘चाबी वाले को बुला लो न कोई… नंबर नहीं है क्या?’’

मैं ने कार के अंदर झांका, मुक्कू अब कुछ कसमसाने लगी थी. उस का चेहरा और सुर्ख पड़ चुका था. मुझ से रहा नहीं गया. एक ईंट का टुकड़ा उठा कर मैं ने कार के शीशे पर दे मारा. लेकिन शीशे को कुछ न हुआ. फिर भीड़ को चीरता हुआ एक लड़का आगे आया और अपने हाथ में लिए हथौड़े से पीछे की सीट के शीशे तो तोड़ डाला. मुक्कू को कांच लगने का खतरा भी टल गया. पीछे का दरवाजा खोल कर वह कार के अंदर गया और मुक्कू वाला दरवाजा अंदर से अनलौक कर दिया.

न जाने मैं कितनी देर मुक्कू को चूमती रही. मेरे आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. कभी उस के मुंह पर फूंक मारती, कभी उस का पसीना पोंछती. वह दिन है और आज का दिन, मैं ने कार की चाबी को उंगली से तभी जाने दिया जब या तो कार स्टार्ट कर ली या फिर अपने हाथ से लौक. प्रण कर लिया कि ऐसी कोई गलती दोबारा कभी नहीं करूंगी.

मैं तो बुढ़ापे तक कार चलाना चाहती हूं. दिल्ली की सर्दी में जब धुंध को चीरती मेरी कार चलती है तब लगता है मानो बादलों में सवारी कर रही हो. क्या आनंद आता है उस समय ड्राइविंग का… मेरी ड्राइविंग सीखने की सारी मेहनत वसूल हो जाती है, होंठ मुसकराने लगते हैं और मैं गुनगुनाने लगती हूं.

सुहाना सफर और ये मौसम हंसी हमें डर है हम खो न जाएं कहीं.

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