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लेखक- अनूप श्रीवास्तव

‘‘वैसे रज्जो, अगर देखा जाए तो इस में बच्चों का उतना दोष भी नहीं है. दरअसल, मैं ही आजकल की जिंदगी नहीं जी पाता हूं. न तो आएदिन बाहर खाना, घूमनाफिरना, न ही रोजरोज शौपिंग करना, नएनए मौडल के टीवी, मोबाइल बदलना, अकसर नए कपड़े खरीदते रहना. ऐसा नहीं है कि मैं इन बातों के एकदम खिलाफ हूं या यह बात एकदम गलत है पर क्या करूं, मेरी ऐसी आदत बन गई है. मगर इस का भी एक कारण है और आज मैं तुम सब को अपने स्वभाव का कारण भी बताता हूं,’’ इतना कह कर विमल गंभीर हो गए तो सब ध्यान से सुनने लगे.

विमल बोले, ‘‘रज्जो, तुझे अपना बचपन तो याद होगा?’’

‘‘हांहां, अच्छी तरह से याद है, भैया.’’

‘‘लेकिन रज्जो, तुझे अपने घर के अंदरूनी हालात उतने अधिक पता नहीं होंगे क्योंकि तू उस समय छोटी ही थी,’’ इतना कह कर विमल अपने बचपन की कहानी सुनाने लगे : उन के पिता लाला दीनदयाल की गिनती खातेपीते व्यापारियों में होती थी. उन के पास पुरखों का दोमंजिला मकान था और बड़े बाजार में गेहूंचावल का थोक का व्यापार था. विमल ने अपने बचपन में संपन्नता का ही समय देखा था. घर में अनाज के भंडार भरे रहते थे, सारे त्योहार कई दिनों तक पूरी धूमधाम से परंपरा के अनुसार मनाए जाते थे. होली हो या दशहरा, दिल खोल कर चंदा देने की परंपरा उस के पूर्वजों के समय से चली आ रही थी. विमल जब कभी अपने दोस्तों के साथ रामलीला देखने जाता तो उन लोगों को सब से आगे की कुरसियों पर बैठाया जाता. इन सब बातों से विमल की खुशी देखने लायक होती थी. विमल उस समय 7वीं कक्षा में था पर उसे अच्छी तरह से याद है कि पूरी कक्षा में वे 2-3 ही छात्र थे जो धनी परिवारों के थे क्योंकि उन के बस्ते, पैन आदि एकदम अलग से होते थे. उन के घर में उस समय के हिसाब से ऐशोआराम की सारी वस्तुएं उपलब्ध रहती थीं. उस महल्ले में सब से पहले टैलीविजन विमल के ही घर में आया था और जब रविवार को फिल्म या बुधवार को चित्रहार देखने आने वालों से बाहर का बड़ा कमरा भर जाता था तो विमल को बहुत अच्छा लगता था. उस समय टैलीफोन दुर्लभ होते थे पर उस के घर में टैलीफोन भी था. आकस्मिकता होने पर आसपड़ोस के लोगों के फोन आ जाते थे. इन सारी बातों से विमल को कहीं न कहीं विशिष्टता का एहसास तो होेता ही था. उसे यह भी लगता था कि उस का परिवार समाज का एक प्रतिष्ठित परिवार है.

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