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लेखक- डा. भारत खुशालानी

दिलेंद्रके भैया ने पूछा, ‘‘कल जिस से मिलने गए थे तुम, उस का क्या हुआ?’’

दिलेंद्र ने ठंडी सांस भरी, ‘‘होना क्या था? वही हुआ जो हमेशा होता है. वह औरत अपने ही बारे में बोलती रही. इतना ज्यादा बोलती रही कि मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया उस ने.’’

भैया ने कहा, ‘‘लेकिन स्वभाव में वह

कैसी है?’’

‘‘आप और भाभी ने मुझे उस से मिलाया. आप की पहचान की थी. आप को उस के स्वभाव के बारे में ज्यादा पता होगा. मुझे तो कुछ समझ में नहीं आया,’’ दिलेंद्र बोला.

भैया ने निराशा में कहा, ‘‘मतलब इस रिश्ते को भी ना ही समझें, है ना?’’

दिलेंद्र ने कुछ नहीं कहा.

भाभी सुन रही थी. उस ने भैया से कहा, ‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था आप से कि वह लड़की भैया के लायक नहीं है.’’

भैया, ‘‘अब दिलेंद्र के जन्मदिन पर इसे किसी से मिलाएंगे.’’

‘‘आज से संक्त्रांति महोत्सव का रजिस्ट्रेशन शुरू कर दिया है संस्था वालों ने,’’ भाभी बोली.

‘‘दिलेंद्र तो बचपन से आज तक कभी चूका नहीं है इस में भाग लेने से,’’ भैया बोले.

‘‘बस वहीं जा रहा हूं. चल भई शांति सिंह,’’ दिलेंद्र ने कहा.

शांति सिंह उस के कुत्ते का नाम था. एकदम शांतिप्रिय था. इसीलिए दिलेंद्र ने उस का यह नाम रख दिया था. लेकिन अभी इस कुत्ते को कुछ आता नहीं था. अपना नाम भी नहीं पहचान

पाता था. दिलेंद्र अपने कुत्ते को ले कर

भैयाभाभी के घर से रवाना हो गया.

संस्था के कार्यालय में रजिस्ट्रेशन के इंचार्ज किवैदहेय से उस की मुलाकात हो

गई. हमेशा की तरह संक्रांति महोत्सव के फ्लायर और पैंपलेट पर किवैदहेय ने अपना फोटो नीचे दाईं ओर लगा दिया था. वह अपना प्रचार करने का कोई अवसर नहीं चूकता था. महोत्सव के लिए उस ने दिलेंद्र की ऐंट्री ले ली.

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