कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

गार्गी शर्मिंदगी का घूंट पीते हुए बोली, ‘‘बेटा, मैं ने अभी बात पूरी ही कहां की है. जानती हूं, अलका भी मेरी बेटी है.’’

‘‘मां, केवल कहने के लिए. बहुत दकियानूस हो. अपनी ही संतानों में भेदभाव करती हो.’’

स्थिति को भांपते हुए गार्गी ने अपने मुंह को बंद रखना ही उचित समझा और व्यंग्य से बड़बड़ाने लगी, ‘आगे से ध्यान रखूंगी मेरी मां.’

घर पहुंच कर निन्नी का विशाल मकान देख कर गार्गी हक्कीबक्की रह गई. न इधर, न उधर, न दाएं, न बाएं कोई भी तो घर दिखाई नहीं दे रहा था. उसे ऐसा लगा, मानो विशाल उपवन में एक गुडि़या का घर ला कर रख दिया गया हो. अभी घर के भीतर जाना शेष था. दरवाजा खुलते ही नानी, नानी करते नाती नानी से लिपट गए.
कुछ समय बैठने के बाद निन्नी ने बच्चों से कहा, ‘‘बेटा, नानी को उन का कमरा दिखाओ.’’

‘‘चलो नानी, सामान अंकल ऊपर ले जाएंगे.’’

‘‘मां, यहां नौकरोंचाकरों का चक्कर नहीं है. सबकुछ खुद ही करना पड़ता है.’’

सांझ के 4 बज चुके थे. पतझड़ का मौसम था. आसपास फैली हुई झाडि़यों की परछाइयां घर की दीवार पर सरकतीसरकती गायब हो चुकी थीं. रात का अंधकार उतर आया था. घर के पीछे चारों ओर बड़ेबड़े छायादार वृक्ष अंधकार में और भी काले लग रहे थे. ऐसा लगता था जैसे उन वृक्षों के पीछे एक दुनिया आबाद हो. वह हतप्रभ थी. चारों ओर धुंध उतर आई थी.

‘‘अमर बेटा, तुम्हें यहां डर नहीं लगता?’’ गार्गी ने प्यार से कहा.
‘‘नानी, डोंट वरी. यहां कोई नहीं आता,’’ 8 वर्ष के अमर ने नानी को आश्वासन देते हुए कहा.
‘‘नहीं नानी, आप को पता है, रात को यहां तरहतरह की आवाजें आती हैं,’’ नटखट अतुल ने शरारती लहजे में कहा जो अभी 5 वर्ष का ही था.
‘‘अतुल, प्लीज मत डराओ नानी को.’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...