“पापा, वहां क्या कुएं से पानी पीते हैं?”

“नहीं, नलका लगा है घर में.”

“मिट्टी के घर हैं क्या वहां?”

“नहीं, जैसे यहाँ हैं वैसे ही हैं.”

“और लालटेन जलानी पड़ेगी क्या?”

“नहीं, लाइट आतीजाती रहती है, अब चुप हो जा गांव जा कर पूछना,” मुरली ने अपनी 11 वर्षीया बेटी के एक के बाद एक प्रश्न से झेंप कर उसे चुप कराते हुए कहा.

मुरली अपनी पत्नी कविता और बेटी कोमल को 11 वर्षों बाद अपने गांव माकरोल ले कर जा रहा था. माकरोल उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले का छोटा सा गांव है. मुरली ने 13 साल पहले यह गांव छोड़ा था. वह गांव से अकेला दिल्ली आया था जिस के एक साल बाद ही उस की मां भी यहां आ गई थीं. यहीं उस की शादी मनीना में रहने वाली कविता से करा दी गई थी. जब मुरली की बेटी दो साल की हुई तो मां उसे हमेशा के लिए छोड़ कर जा चुकी थीं.

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वर्तमान में दिल्ली की हालत तो किसी से छुपी हुई नहीं है. कोरोना के चलते जितना सरकारी धनकोश लोगों के लिए खाली है उस से कही ज्यादा आम आदमी की जेब खाली हो चुकी है. दो महीने से काम न होने के चलते शहर के बोर्डर खुलते ही मुरली ने परिवार के साथ वापस गांव लौटने का फैसला कर लिया था.

बस में 6 घंटों का सफर अब समाप्त हो चुका था. मुरली, कविता और कोमल अपने सामान से लदालद भरे 4 बैग ले कर बस से उतरे. कविता का मुंह उस के दुपट्टे से, मुरली का गमछे और कोमल का मास्क से ढका हुआ था. गांव का नजारा शहर से बेहद अलग था. लग रहा था मानो कोरोना ने यहां किसी को छूआ ही न हो. लोग अब भी गुट बनाए बैठे बातें करते साफ दिख रहे थे.

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