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लखनऊ विश्वविद्यालय का सभागार आज खचाखच भरा हुआ था. सभी छात्र समय से पहले ही पहुंच गए थे. नगर के सम्मानित व्यक्तियों को भी आमंत्रित किया गया था. यह मौका था वादविवाद प्रतियोगिता के फाइनल का.

विश्वविद्यालय में एमएससी कर रहे एक छात्र रजनीश और शोध कार्य कर रही छात्रा देविका फाइनल में पहुचे थे और बहस का विषय था ‘तकनीक के समय में पुस्तकों की उपयोगिता.’

रजनीश ने तकनीक का पक्ष लिया और बोलना शुरू किया, उस ने तकनीक की महत्त्वता बताई और अनेक तर्क दिए जैसे रजनीश ने बताया कि आज जब हमारे पास कंप्यूटर है, लैपटौप है और  तीव्र गति से  हर परिणाम दिखाने वाला इंटरनैट है तो भला हम किताबों के भरोसे क्यों रहें.

आज इंटरनैट पर सिर्फं एक बटन दबाते ही दुनिया भर की जानकारी उपलब्ध हो सकती है तो  हम किताबें ढोने में समय क्यों गंवाएं, पुरातनपंथी क्यों बनें और क्यों न तकनीक को अपनाएं.

इस के बाद भी रजनीश ने तकनीक की बढ़ाई करते हुए बहुत सारे तर्क दिए जो लगभग अकाट्य थे. लोगों ने खूब तालियां बजा कर रजनीश का उत्साहवर्धन किया.

बारी देविका की आई तो वह बोली, ‘‘मेरे दोस्त ने काफी कुछ कह दिया है पर फिर भी मैं इतना कहूंगी कि तकनीक जरूरी है पर इस का मतलब यह नहीं कि हम पुस्तकों के महत्त्व को नकार ही दें. आखिरकार हमारे ज्ञान का स्रोत तो पुस्तकें ही हैं. जिस तरह से पौधा हमेशा ऊपर की ओर  जाता है पर उस की जड़ें नीचे की ओर बढ़ती हैं और जड़ें जितना नीचे जाती हैं वह पौधा उतना ही मजबूत पेड़ बन जाता है. इस के बाद देविका ने भी लोगों को एक के बाद एक तथ्य बताए जो यह सिद्ध करते थे कि इंटरनैट के इस युग में भी पुस्तकें को पढ़ना जरूरी है.

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