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अपने बच्चे को इस तरह आहत देख कर मेरा दिल भी रो उठा. जी चाहा गले से लगा कर उसे प्यार करूं. कितनी मजबूर थी मैं, अमेरिका इतनी दूर है कि जब जी चाहा नहीं जाया जा सकता. एक तो छुट्टी मिलनी मुश्किल है, ऊपर से पैसे भी कितने लगेंगे. मन मार कर फोन और ईमेल से ही समझौता करना पड़ा. दिन में 2 बार फोन कर के मैं रोहित को हिम्मत बंधाती रही. पर दिन और रात का ये फर्क, अमेरिका और भारत के बीच मेरे काम को और मुश्किल कर देता था.

जब रोहित मुश्किल के इस दौर से गुजर रहा था, फोन करने के लिए भारत में 5 बजने का इंतजार करता रहता था. कई दिन मेरे नित्यकर्मों से निबटने के पहले उस का फोन आ जाता था. उस वक्त उस के मित्रों ने भी उस से किनारा करना शुरू कर दिया था.

दूसरों के सुख में तो सभी सहभागी होते हैं, पर दूसरों के दुख को कोई अपना ही बांटता है. सेवानिवृत्त होने मेरे सिर्फ 2 महीने ही बचे थे. ऐसे में मेरा जाना नामुमकिन था. इन सब मामलों से रवि ने अपने को दूर ही रखा. वैसे भी शादीब्याह का मामला हो या बच्चों की पढ़ाई का मैं ही सब कुछ संभालती थी. हां अंत में ये अपनी मुहर जरूर लगा देते.  मुझ से कहते, ‘‘तुम ही संभालो उसे, वह तुम्हारे ज्यादा करीब है.’’

इस में रोहित ने मेरी मदद की. उस ने मुझे अक्षरश: समझ दिया कि मुझे लिंडा से क्या कहना है. मैं ने लिंडा को फोन कर के कहा, ‘‘मुझे तुम दोनों की शादी से कोई एतराज नहीं है, अगर तुम हां कहो तो मेरे परिवार में तुम्हारा स्वागत होगा,’’

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