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लेखक- रमणी मोटाना

आज उसे लग रहा था कि उस ने व उस के पति ने बेटी के प्रति न्याय नहीं किया. क्या हमारी सोच गलत थी? उस ने अपनेआप से सवाल किया. शायद हां, उस के मन ने कहा. हम जमाने के साथ नहीं चले. हम अपनी परिपाटी से चिपके रहे.

पहली गलती हम से यह हुई कि बेटी के परिपक्व होने के पहले ही उस की शादी कर देनी चाही. अल्हड़ अवस्था में उस के कंधों पर गृहस्थी का बोझ डालना चाहा. हम जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. और दूसरी भूल हम से तब हुई जब वीणा ने अपनी पसंद का लड़का चुना और हम ने उस की मरजी को नकार कर उस की शादी में हजार रोडे़ अटकाए. अब जब वह अपनी शादी से खुश नहीं थी और पति से तलाक लेना चाह रही थी तो हम दोनों पतिपत्नी ने इस बात का जम कर विरोध किया.

बेटी की खुशी से ज्यादा उन्हें समाज की चिंता थी. लोग क्या कहेंगे, यही बात उन्हें दिनरात खाए जाती थी. उन्हें अपनी मानमर्यादा का खयाल ज्यादा था. वे समाज में अपनी साख बनाए रखना चाहते थे, पर बेटी पर क्या बीत रही है, इस बात की उन्हें फिक्र नहीं थी. बेटी के प्रति वे तनिक भी संवेदनशील न थे. उस के दर्द का उन्हें जरा भी एहसास न था. उन्होंने कभी अपनी बेटी के मन में पैठने की कोशिश नहीं की. कभी उस की अंतरंग भावनाओें को नहीं जानना चाहा. उस के जन्मदाता हो कर भी वे उस के प्रति निष्ठुर रहे, उदासीन रहे.

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