सुबह के 10 बजे थे. डेरे के अपने औफिस में आ कर मैं बैठा ही था. लाइजन अफसर के रूप में पिछले 2 साल से मैं सेवा में था. हाल से गुजरते समय मैं ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि बाहर मिलने के लिए कौनकौन बैठा है. 10 और 12 बजे के बीच मिलने का समय था. सभी मिलने वाले एक पर्ची पर अपना नाम लिख कर बाहर खड़े सेवादार को दे देते और वह मेरे पास बारीबारी भेजता रहता. 12 बजे के करीब मेरे पास जिस नाम की पर्ची आई उसे देख कर मैं चौंका. यह जानापहचाना नाम था, मेरे एकमात्र बेटे का. मैं ने बाहर सेवादार को यह जानने के लिए बुलाया कि इस के साथ कोई और भी आया है.

‘‘जी, एक बूढ़ी औरत भी साथ है.’’

मैं समझ गया, यह बूढ़ी औरत और कोई नहीं, मेरी धर्मपत्नी राजी है. इतने समय बाद ये दोनों क्यों आए हैं, मैं समझ नहीं पाया. मेरे लिए ये अतीत के अतिरिक्त और कुछ नहीं थे. संबंध चटक कर कैसे टूट गए, कभी जान ही नहीं पाया. मैं ने इन के प्रति अपने कर्तव्यों को निश्चित कर लिया था.

‘‘साहब, इन दोनों को अंदर भेजूं?’’ सेवादार ने पूछा तो मैं ने कहा, ‘‘नहीं, ड्राइवर सुरिंदर को मेरे पास भेजो और इन दोनों को बाहर इंतजार करने को कहो.’’

वह ‘जी’ कह कर चला गया.

सुरिंदर आया तो मैं ने दोनों को कोठी ले जाने के लिए कहा और कहलवाया, ‘‘वे फ्रैश हो लें, लंच के समय बात होगी.’’

बेबे, जिस के पास मेरे लिए खाना बनाने की सेवा थी, इन का खाना बनाने के लिए भी कहा. वे चले गए और मैं दूसरे कामों में व्यस्त हो गया.

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