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मानव की चिंता जायज थी. अच्छा पड़ोसी वरदान है क्योंकि अपनों से पहले पड़ोसी काम आता है. खाने की मेज पर सभी जुट गए. वसुधा की मेहनत सामने थी. सभी खाने लगे मगर मानव ने सिर्फ रायता और चावल ही लिए. मंचूरियन में सिरका था, चिली चीज में टोमैटो कैचअप था और अंडाकरी में तो अंडा था ही. सूप में भी अंडा था. आंखें भर आईं वसुधा की. मानव ये सब नहीं खा पाएंगे, उसे नहीं पता था. उसे रोता देख कर मानव ने खाने के लिए हाथ बढ़ा दिया.

‘‘नहीं, चाचाजी, आप बीमार हो जाएंगे. रहने दीजिए.’’

‘‘मैं घर पर भी नमकीन चावल ही बना कर खाता हूं. तुम दुखी मत हो बच्ची. फिर किसी दिन बना लेना.’’

वसुधा का सिर थपथपा कर मानव चले गए. वे मेरे सहकर्मी हैं. वरिष्ठ प्रबंधक हैं, इसलिए शहर की बड़ी पार्टियां उन्हें हाथोंहाथ लेती हैं.

‘‘कोई फायदा नहीं साहब, जब तक आप के सारे कागज पूरे नहीं होंगे आप को लोन नहीं मिल सकता. मेरी चापलूसी करने से अच्छा है कि आप कागज पूरे कीजिए. मेरी सुविधा की बात मत कीजिए. मेरी सुविधा इस में है कि जो बैंक मुझे रोटी देता है कम से कम मैं उस के साथ तो ईमानदार रहूं. मेरी जवाबदेही मेरे अपने जमीर को है.’’

इस तरह की आवाजें अकसर सब सुनते हैं. कैबिन का दरवाजा सदा खुला होता है और मानव क्या कहसुन रहे हैं सब को पता रहता है.

‘‘आज जमाना इतने स्पष्टवादियों का नहीं है, मानव...10 बातें बताने वाली होती हैं तो 10 छिपाने वाली भी.’’

‘‘मैं क्या छिपाऊं और क्यों छिपाऊं. सच सच है और झूठ झूठ. जो काम मुझे नहीं करना उस के लिए आज भी ना है और कल भी ना. कैबिन बंद कर के मैं किसी से मीठीमीठी बातें नहीं करना चाहता. हमारा काम ही पैसे लेनादेना है. छिपा कर सब की नजरों में शक पैदा क्यों किया जाए. 58 का हो गया हूं. इतने साल कोई समस्या नहीं आई तो आगे भी आशा है सब ठीक ही होगा.’’

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