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एक दिन परेशान थे मानव, आंखों में बसी चिरपरिचित सी शक्ति कहीं खो गई थी.

‘‘आप को क्या लगता है, मैं लड़ाका हूं, सब से मेरा झगड़ा लगा रहता है. मैं हर जगह सब में कमियां ही निकालता रहता हूं. वसुधा बेटा, जरा समझाना. 2 रातों से मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’

मानव के मन की पीड़ा को जान कर मैं व वसुधा अवाक् थे. ऐसा क्या हो गया. पता चला कि मानव ने उस वृद्ध दंपती से अपनी रचनाओं के बारे में एक ईमानदार राय मांगी थी. 2 दिन पहले उन के घर पर कुछ मेहमानों के साथ मानव और मीना भाभी भी थीं.

‘‘मानव, आप की रचनाएं तो कमाल की होती हैं. आप के पात्रों के चरित्र भी बड़े अच्छे होते हैं मगर आप स्वयं इस तरह के बिलकुल नहीं हैं. आप की आप के रिश्तेदारों से लड़ाई, आप की आप के समधियों से लड़ाई इसलिए होती है कि आप सब में नुक्स निकालते हैं. आप तारीफ करना सीखिए. देखिए न हम सदा सब की तारीफ ही करते रहते हैं.’’

85 साल के वृद्ध इनसान का व्यवहार चार लोगों के सामने मानव को नंगा सा कर गया था.

‘‘मेरी रचनाओं के पात्रों के चरित्र बहुत अच्छे होते हैं और मैं वैसा नहीं हूं... वसुधा, क्या सचमुच मैं एक ईमानदार लेखक नहीं...अगर मैं ने कभी उन्हें अपना बुजुर्ग समझ उन से कोई राय मांग ही ली तो उन्होंने चार लोगों के सामने इस तरह कह दिया. अकसर वहां मैं वह सब नहीं खाता जो वे मेहमान समझ कर परोस देते हैं... मुझे तकलीफ होती है... तुम जानती हो न... हैरान हूं मैं कि वे मुझे 3 साल में बस इतना ही समझे. क्या मेरे लिए अपने मन में इतना सब लिए बैठे थे. यह दोगला व्यवहार क्यों? कुछ समझाना ही चाहते थे तो अकेले में कह देते. अब उस 85-87 साल के इनसान के साथ मैं क्या माथा मारूं कि मैं ऐसा नहीं हूं या मैं वैसा हूं. क्या तर्कवितर्क करूं?

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