पता नहीं कहां गया है यह लड़का. सुबह से शाम होने को आई, लेकिन नवाबजादे का कुछ पता नहीं कि कहां है. पता नहीं, सारा दिन कहांकहां घूमताफिरता है. न खाने का होश है न ही पीने का. यदि घर में रहे तो सारा दिन मोबाइल, इंटरनैट या फिर टैलीविजन से चिपका रहता है. बहुत लापरवाह हो गया है.

अगर कुछ कहो तो सुनने को मिलता है, ‘‘सारा दिन पढ़ता ही तो हूं. अगर कुछ देर इंटरनैट पर चैटिंग कर ली तो क्या हो गया?’’

फिर लंबी बहस शुरू हो जाती है हम दोनों में, जो फिर उस के पापा के आने के बाद ही खत्म होती है.

वैसे इतना बुरा भी नहीं है आकाश. बस, थोड़ा लापरवाह है. दोस्तों के मामले में उस का खुद पर नियंत्रण नहीं रहता है. जब दोस्त उसे बुलाते हैं, तो वह अपना सारा कामकाज छोड़ कर उन की मदद करने चल देता है. फिर तो उसे अपनी पढ़ाई की भी फिक्र नहीं होती है. अगर मैं कुछ कहूं तो मेरे कहे हुए शब्द ही दोहरा देगा, ‘‘आप ही तो कहती हैं ममा कि दूसरों की मदद करो, दूसरों को विद्या दान करो.’’

तब मुझे गुस्सा आ जाता, ‘‘लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि अपना घर फूंक कर तमाशा देखो. अरे, अपना काम कर के चाहे जिस की मदद करो, मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर अपना काम तो पूरा करो.’’

जब वह देखता कि मां को सचमुच गुस्सा आ गया है, तो गले में बांहें डाल देता और मनाने की कोशिश करता, ‘‘अच्छा ममा, आगे से ऐसा नहीं करूंगा.’’

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