कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

विवाह के साथ ही शहर बदल गया. पापा का परिवार थोड़ा पुराने खयालों का था, सो मां कभी उस में सामंजस्य ही नहीं बैठा पाईं. शायद अंदर ही अंदर घुटती रही, पापा से कभी खुल कर बात ही नहीं की और पापा ने भी कभी यह नहीं जानना चाहा कि मां क्या चाहती हैं. बस अपने पूरे परिवार की जिम्मेदारियां मां पर डाल दीं. कहने को तो संयुक्त परिवार, किंतु वहां सब जैसे एकदूसरे के दुश्मन, सभी जैसे अपनाअपना फायदा देख रहे थे.’’

‘‘हां तो इस में गलती तुम्हारे पापा की भी तो है, तुम मां को ही क्यों दोषी बता रही हो?’’ ऐशा ने उग्र स्वर में पूछा.

‘‘तुम्हारा सवाल भी ठीक है. कहते हैं न अन्याय सहने वाला अन्याय करने वाले से भी ज्यादा दोषी होता है इसीलिए.

‘‘मां कभी अपने मन की न कर पाईं. मन ही मन जलती रहीं और पापा को कोसती रहीं. खुल कर कभी बोल ही न पाईं, किंतु इन सब में मेरा व मेरे भाई का क्या दोष?

‘‘हमें इतना मारतीं जैसे सारी गलती हमारी ही हो. पूरे परिवार का गुस्सा हम दोनों भाइबहिनों पर उतारतीं.’’

‘‘तो तुम्हारे पापा ने कभी तुम्हारे बचाव के लिए कुछ नहीं किया?’’

‘‘किसे फुरसत और फिक्र थी हमारी लिए जो कुछ करते? उन्हें तो सिर्फ  अपनेअपने ईगो सैटिस्फाई करने होते थे. यह दिखाना होता था कि वे ही सर्वश्रेष्ठ हैं, मां सोचती कि इतनी पढ़ीलिखी हो कर भी गृहस्थी की चक्की में पिस रही हैं वे. पापा सोचते कि घर बैठ कर करती ही क्या है, पढ़ीलिखी है पर व्यवहार करना भी नहीं आता. एकदूसरे के लिए उन की आपसी खीज ने हमारे बचपन को नर्क बना दिया था. बच्चे तो आपसी प्रेम की पैदाइश और पहचान होते हैं, लेकिन उन के आपसी   झगड़ों ने हमारी मुसकराहट छीन ली थी.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...