आधुनिक स्कूलों की जाती एसी बसों में भारी बस्ते लिए बच्चे चढ़ रहे थे. उन की मौडर्न मांएं कैपरीटीशर्ट के ऊपर लिए दुपट्टे को संभालती हुई बायबाय कर रही थीं. कारें दफ्तरों, कारोबारों की तरफ रवाना हो रही थीं. पिछली सीट पर अपने सैलफोन में व्यस्त साहब लोग गार्ड्स के सलाम ठोकने को आंख उठा कर नहीं देखते. 11, 13 और 15 बरस की महरियां काम पर आ रही थीं और कालोनी के सुरक्षा गार्ड्स उन्हें छेड़ रहे थे.

पौश कालोनी के सामने हाईवे सड़क की झडि़यों पर फूल सी कोमल धूप खिल ही रही थी. उस में आज फिर धूल के तेज गुबार आआ कर मिल उठ गए थे. उस पार कलोनाइजर की मशीनी फौज उधर के बचे जंगल को मैदान में बदल रही थी. हाईवे सड़क के आरपार 2 ऊंचे बोर्ड थे. निर्माणाधीन नील जंगल सिटी, नवनिर्मित नील झरना सिटी.

कालोनी द्वार के सजीले पाम वृक्षों की चिडि़यां न जाने क्यों अचानक चुप लगा गई थीं. बाकी सब ठीक चल रहा था. दूसरी कतार के तीसरे बंगले में रहने वाली गृहिणी अपने दोनों बच्चों को स्कूल बस में और पति को कार में विदा कर ऊपरी बैडरूम में कांच के सजीले जग में पानी रख चुकी थी. अब दोनों जरमन शेफर्ड कुत्तों को खाने में उबला मीट दे रही थी. वह चुप और उदास दिख रही थी. हिंदुस्तानियों को ऐसी स्त्रियां हमेशा ही बहुत पसंद रही हैं जो अलसुबह उठ कर सब के जाने की तैयारी, जाने के बाद उन के जूठे बरतन और बिस्तर पर छूटे गीले तौलिए, कपड़े समेटना, आने पर सब का सत्कार और गैरमौजूदगी में घर की सुव्यवस्था आदि करती हैं. परिचित पड़ोसी, नातेरिश्तेदार कौन नहीं जो इस गृहिणी की मिसाल अपनी स्त्रियों को न देता हो.

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