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सोचसोच कर श्रुति का कलेजा मुंह को आने लगा. श्रुति को बेटी समझ कर रखा था बाबाअम्मां ने. दरअसल, उन की स्वयं की बेटी का नाम श्रुतकीर्ति था. नाम की इस समरूपता ने बाबाअम्मां को कुछ ज्यादा ही जोड़ दिया था श्रुति से. अब ऐसे स्नेहिल मातापिता को छोड़ कर वह कैसे चल दे.

तभी नीचे टाटा सूमो के रुकने की आवाज आई. गांव से उस के सासससुर (मांबाबूजी) आने वाले थे. श्रुति उठी और आंसू पोंछतीपोंछती नीचे आई.

मांबाबूजी ही थे. श्रुति की उड़ी रंगत देख वे घबरा गए. श्रुति ने हाथ के इशारे से चुप रहने का संकेत किया और ऊपर आ कर उन्हें सब हाल कह सुनाया. सुन कर उन्हें गहरा सदमा लगा.

बाबा को अपना बड़ा भाई मानने लगे थे बाबूजी. बाबाअम्मां की आत्मीयता देख मांबाबूजी निश्चिंत रहते थे. गांव में रहते हुए उन्हें अपने बेटेबहू की चिंता करने की कभी जरूरत महसूस नहीं हुई.

उन्होंने फौरन निर्णय लिया, रंजन उस मकान को बेच देगा और यहीं रह कर बाबाअम्मां की सेवा करेगा.

बाबा को जब इस निर्णय की जानकारी हुई, उन्होंने इस का विरोध किया. उन्होंने समझाया, ‘‘गहने और मकान बनवा लिए तो बन जाते हैं, वरना योजनाएं ही बनती रहती हैं, इसलिए भावनाओं में बह कर अब हो रहे कार्य को टालो मत.’’

बाबा की दूरंदेशी भरी सलाह के आगे सब को झुकना पड़ा और रंजन के घर का गृह- प्रवेश हो गया.

रंजन अपने घर चला गया. वह तो 2-3 माह बाद जाना चाहता था, पर  बाबाअम्मां ने समझाया, ‘‘गृहप्रवेश के बाद घर सूना नहीं छोड़ते.’’

बाबा का घर खाली हो गया. उस पर ‘किराए से देना है’ की तख्ती लग गई. पूरे 7-8 वर्षों बाद लगी थी यह तख्ती.

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