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सब्जी जलने की गंध से इला का ध्यान टूटा. शिमलामिर्च जल कर कोयला हो गई थी. फ्रिज खोल कर देखा तो एक बैगन के सिवा कुछ भी नहीं था. वही काट कर छौंक दिया और दाल कुकर में डाल कर चढ़ा दी. वैसे वह जानती थी कि  यह खाना राजन को जरा भी पसंद नहीं. कितने चाव से सवेरे शिमलामिर्च मंगवाई थी.

इला व राजन हिल कोर्ट रोड के 2 मंजिले मकान की ऊपरी मंजिल पर रहते थे व नीचे के तल्ले पर कंपनी का गैस्टहाउस था. वहीं का कुक जब अपनी खरीदारी करने जाता तो इला भी उस से कुछ मंगवा लेती थी. कभी खाना बनाने का मन न होने पर नीचे से ही खाना मंगवा लिया जाता जो खास महंगा न था. कभी कुछ अच्छा खाने का मन होता तो स्विगी और जोमैटो थे ही.

कमरों के आगे खूब बड़ी बालकनी थी, जहां शाम को इला अकसर बैठी रहती. पहाड़ों से आने वाली ठंडी हवा जब शरीर से छूती तो तन सिहरसिहर उठता. गहरे अंधेरे में दूर तक विशालकाय पर्वतों की धूमिल बाहरी रेखाएं ही दिखाईर् देतीं, बीच में दार्जिलिंग के रास्ते में ‘तिनधरिया’ की थोड़ी सी बत्तियां जुगनू की जगह टिमटिमाती रहतीं.

राजन अकसर दौरे पर दार्जिलिंग, कर्लिपौंग, गंगटोक, पुंछीशिलिंग या कृष्णगंज जाता रहता. इला को कई बार अकेले रहना पड़ता. वैसे नीचे गैस्टहाउस होने से कोई डर न था.

इला ने चाय बनाई व प्याला ले कर बालकनी में आ बैठी. शाम गहरा गई थी. हिल कोर्ट रोड पर यातायात काफी कम हो गया था. अकेली बैठी, हमेशा की तरह इला फिर अपने अतीत में जा पहुंची.

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