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राजन शाम को घर में घुसते ही बोला, ‘‘इला, शनिवार को तैयार रहना, सब मित्रों के साथ मनाली जाने का कार्यक्रम बनाया है.’’

इला सुन कर भी रसोई में बैठी चुपचाप अपना काम करती रही. अब की बार राजन जरा जोर से बोला, ‘‘इला, सुन लिया न, शनिवार को मनाली जाने का कार्यक्रम है?’’

इला ? झल्ला सी गई, ‘‘हांहां, सुन लिया. लेकिन तुम्हीं जाना. तुम तो जानते ही हो कि मुझे पहाड़ पर आनेजाने में कितनी परेशानी होती है.’’

‘‘इस में परेशानी की क्या बात है. मतली रोकने के लिए खट्टीमीठी गोलियां चूसती रहना.’’

‘‘मुझे साथ घसीटने की तुक क्या है? तुम्हारा मन है, तुम्हीं चले जाना,’’ इला ने दो टूक शब्दों में कहा.

राजन खिन्न सा हो गया कि पता नहीं कैसी है इला. कोई भी कार्यक्रम बनाओ, कभी सिरदर्द तो कभी मूड खराब, सदा कोई न कोई बहाना लगा ही रहता है. वह गुस्से में पैर पटकता हुआ बिना चाय पीए ही बाहर चला गया. इतना जरूर कहता गया, ‘‘अकेले ही जाना होता तो शादी किसलिए की थी?’’

इला को बुरा भी लगा व अपने पर क्रोध भी आया. कितना दुख देती है राजन को वह. हर समय उस के पिकनिक या सैर के उत्साह पर पानी फेर देती है. वह उसे प्रसन्न करने का भरसक प्रयत्न करता है परंतु इला का मन सदा बुआबुआ ही रहता है. शादी को 2 साल होने का आए परंतु अब तक वह अपने अतीत को नहीं भुला पाई।

कालेज में पढ़ते समय अपने सहपाठी रमण के साथ इला की जानपहचान मित्रता की सीमाओं से काफी आगे बढ़ गई थी. बस में दोनों एकसाथ चढ़ कर विश्वविद्यालय जाते थे. शुरूशुरू में तो मुलाकात एकदूसरे की पहचान तक ही सीमित रही, फिर धीरेधीरे अनजाने ही दोनों एकदूसरे की प्रतीक्षा करने लगे. जब तक दूसरा न आ जाता, उन में से कोई बस में न चढ़ता. सुब्रत पार्क से विश्वविद्यालय तक कितना लंबा सफर था. एकडेढ़ घंटे तक दोनों गप्पें मारते रहते. समय कैसे कट जाता, पता ही न चलता.

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