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राकेश रात के 8 बजे लौटे. मुझे अनदेखा कर के बोले, ‘‘खाना तैयार हो तो

ले लाओ नहीं तो कल से खाना भी बाहर खा लिया करूंगा. फिर तुम्हें रंजू के लिए और ज्यादा वक्त मिल सकेगा.’’

मुझे गुस्सा तो बहुत आया परंतु चुप रहना ही उचित समझ खाना परोस कर ले आई. इतने व्यंग्य सुन कर मेरी भूख मिट गई थी. गले में ग्रास अटके जाते थे, पर जैसेतैसे खाना निबटा कर मैं उठ गई. राकेश ने मेरे कम खाने पर कुछ नहीं पूछा तो मन और उदास हो गया क्योंकि ऐसा पहली बार ही हुआ था.

सोचा, रात के एकांत में राकेश जरूर मुझे प्यार करेंगे. अपनी गलती के लिए कुछ कहेंगे परंतु बरतन समेट कर कमरे में आई तब तक राकेश सो चुके थे. उस पूरी रात मैं ठीक से सो भी नहीं सकी. आंखें बारबार भीगती रहीं.

मन में यह भी विचार आया कि राकेश कहीं किसी चक्कर में तो नहीं फंस गए. पर अंत में यह सोच कर कि आगे से राकेश के आने के वक्त से ठीक से तैयार हो जाया करूंगी, मैं हलकी हो कर सो गई.

सुबह देर से आंख खुली. रंजू बेतहाशा रो रहा था और राकेश अखबार पढ़ रहे थे. मैं ?ाटके से उठी. रंजू को उठाया और राकेश से बोली, ‘‘इतनी देर से रो रहा है, क्या यह सिर्फ मेरा

ही बेटा है जो आप इस की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते.’’

राकेश चिढ़ कर बोले, ‘‘अलार्म का

काम कर रहा था तुम्हारा सुपूत, सो मैं बैठा

रहा ताकि तुम उठ कर चाय तो तैयार करो.

अब इस के होने पर न जाने क्याक्या बंद होने वाला है मेरा.’’

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