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कहानी- अशोक कुमार

‘‘क्या आप ने देखा कि यहां आना कितना मुश्किल है. तमाम सड़कें टूटी हैं. पुल टूटे हैं. वर्षों से लगता है कि इन की मरम्मत नहीं हुई है.’’

‘‘यह बारिश के कारण भी तो हो सकता है. इस क्षेत्र में तो भारत में सब से अधिक बारिश होती है.’’

‘‘नहीं, यह मरम्मत न किए जाने के कारण है. उत्तराखण्ड व हिमाचल में भी तो खूब बारिश होती है पर वहां तो सड़कों और पुलों की स्थिति ऐसी नहीं है. यह स्थिति क्या क्षेत्र के लिए सरकार की उपेक्षा नहीं दिखाती है?’’

‘‘हो सकता है, पर इस बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है.’’

‘‘आप एक आम आदमी की नजर से यहां के रहने वालों की नजर से सोचिए कि यदि किसी गर्भवती महिला को या एक बीमार व्यक्ति को इन सड़कों से हो कर 3 घंटे की यात्रा कर के तहसील स्थित अस्पताल पहुंचना हो तो क्या उस महिला का या उस व्यक्ति का जीवन बच सकेगा? महिला का तो रास्ते में ही गर्भपात हो सकता है और व्यक्ति अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देगा. सोचिए कि कितनी पीड़ा, कितना दर्द यहां के लोग सहते हैं.’’

शर्मिला के इस कथन पर मैं निरुत्तर हो गया था. समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूं, क्योंकि इस सवाल का कोई उत्तर मेरे पास था ही नहीं.

अगले दिन शर्मिला ने मुझे मतदान केंद्र संख्या 26 और 27 दिखाने को कहा. यहां जाने के लिए हमें 10 किलोमीटर जीप से जाने के बाद 5 घंटे नदी में नाव से जाना था. हम 3 नावों में बैठ कर उन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर पहुंचे. रास्ते कितने परेशानी भरे होते हैं और आदमी का जीवन कितना कष्टों से भरा होता है, यह मैं ने पहली बार 5 घंटे नाव की सवारी करने पर जाना.

इन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर शर्मिला ने सभी गांव वालों को बुला कर उन की समस्याएं उन की जबानी मुझे सुनाई थीं. उस ने बताया था कि इन गांवों तक पहुंचना कितना मुश्किल है, बीमार का इलाज होना, शिक्षा व रोजगार पाना लगभग असंभव है. सारा जीवन अंधेरे में उजाले की उम्मीद लिए काटने जैसा है. ये लोग रोज सोचते हैं कि कल नई जिंदगी मिलेगी पर आज तक सिर्फ अंधेरा ही साथ रहा है. इन गांवों में 1949 का बना हुआ प्राइमरी स्कूल है जो आजादी के लगभग 60 वर्ष बाद भी प्राइमरी ही है. यहां पर शिक्षक भी नहीं आते हैं और बच्चे कक्षा 5 से आगे पढ़ ही नहीं पाते.

तीसरे दिन शर्मिला मुझे पोलिंग स्टेशन संख्या 13, 14 की ओर ले गई. इस तरफ भी वही स्थिति थी, खराब सड़कें, टूटे पुल, टूटे स्कूल, बेरोजगार लोग और बंद पड़े चाय के कारखाने…मैं समझ नहीं पा रहा था कि शर्मिला मुझे क्या दिखाना चाह रही थी. एक ऐसा सच, जिस के बारे में दिल्ली में किसी को पता नहीं और हम लोग ‘इंडिया शाइनिंग’ कहते रहते हैं पर सच तो यह है कि आधी से ज्यादा आबादी के लिए जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. इन स्थितियों को देख कर लगता है कि हम आम आदमी के लिए संवेदनशील नहीं हैं और उसे अच्छी जिंदगी देना ही नहीं चाहते.

चौथे दिन शर्मिला मुझे पास के भारत-म्यांमार की सीमा पर स्थित 2 शहरों, मोरे और तामू में ले गई. दोनों सटे शहर हैं. मोरे भारत की सीमा में है तो तामू म्यांमार की सीमा में. इसलिए यहां आने के लिए सरकार से अनुमति की आवश्यकता नहीं थी. वहां उस ने मुझे तामू का छोटा सा बाजार दिखाया था. बाजार चीनी सामानों से पटा हुआ था और सारी वस्तुएं बहुत खूबसूरत और कम दाम में उपलब्ध थीं. शर्मिला ने बातचीत प्रारंभ की :

‘‘आप को इन सामानों को देख कर क्या लगता है?’’

‘‘लगता है कि चीन ने बहुत तरक्की कर ली है, तभी तो इतनी तरह की वस्तुएं, इतनी अच्छी और कम दाम में यहां पर उपलब्ध हैं. दिल्ली और मुंबई के बाजारों में भी चीनी सामान की भरमार है.’’

‘‘क्या आप को नहीं लगता कि चीन की सरकार ने लोगों के लिए ऐसा जीवन दिया है जिस में आदमी अपनी समस्त सृजन क्षमताओं का पूरा उपयोग कर सके?’’

‘‘हां, लगता तो है.’’

‘‘क्या हम लोग अपने लोगों को ऐसी जिंदगी नहीं दे सकते कि हमारे लोग भी अपनी क्षमताओं का उपयोग कर दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकें, विश्व की एक महाशक्ति बन सकें?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. यह तो संभव है पर लगता है कि हम लोगों में स्थितियों को बदलने की इच्छाशक्ति नहीं है.’’

‘‘वह तो है ही नहीं क्योंकि हम प्रगति की वह गति पकड़ ही नहीं पाए जो चीन ने पकड़ ली और अब आगे ही बढ़ता जा रहा है. हम से 2 साल बाद आजाद हुआ चीन आज कहां है और हम कहां हैं.’’

इसी तरह बाकी के 3 दिन भी शर्मिला के साथ अलगअलग क्षेत्रों का दौरा करते हुए बीत गए. इन 7 दिनों में मैं ने  सभी पोलिंग स्टेशनों को देखने का काम शर्मिला के साथ ही किया था और सच तो यह है कि मैं उस के मोहक व्यक्तित्व में खोया रहता था और बिना उस के कहीं जाने की कल्पना नहीं कर पाता था. वह उम्र में मुझ से लगभग 15 साल छोटी थी इसलिए उस के लिए मेरे मन में सदैव स्नेह रहता था, पर मैं उस के गुणों से बेहद प्रभावित था.

अंतिम दिन शर्मिला मुझ से विदा लेने आई. वह अकेली थी तथा उस ने मुझ से अपने पास से सभी को हटाने का अनुरोध किया था. उस की इस बात को मान कर मैं ने सभी को वहां से हटाया था. लोगों के हटने के बाद हम ने कुछ औपचारिक बातें शुरू की थीं.

‘‘शर्मिला, तो तुम आज के बाद नहीं आओगी?’’

‘‘हां, मैं जा रही हूं. मुझे म्यांमार जाना है, कुछ जरूरी काम है. वहां मेरे कुछ सहयोगी रहते हैं.’’

‘‘तुम्हारे ऐसे कौन से सहयोगी हैं जिन के लिए तुम देश के बाहर जा रही हो?’’

‘‘हम लोग वहां से लोकतंत्र की बहाली के लिए युद्ध लड़ रहे हैं. छोडि़ए, आप नहीं समझेंगे इसे. आप लोग दिल्ली में बैठ कर नहीं महसूस कर पाते कि यहां के अंधेरों में आदमी का जीवन कैसा है? किस प्रकार पुलिस निर्दोष लड़केलड़कियों को मात्र शक के आधार पर पकड़ ले जाती है और तरहतरह की यातनाएं देती है. कैसे बच्चे पढ़लिख नहीं पाते और उन्हें आजादी के इतने साल बाद भी अच्छी जिंदगी नहीं मिलती…कैसे कारखाने बंद रहते हैं और मजदूर भूखों जीवन गुजारते हैं…आप को क्याक्या बताऊं? आप को इसलिए मैं सब कुछ दिखाना चाहती थी ताकि आप महसूस कर सकें कि असली जिंदगी होती क्या है.’’

शर्मिला की बातें सुन कर मुझे अजीब सा लगने लगा था. उस के सवालों का क्या उत्तर था मेरे पास? मैं चुपचाप उस की ओर देखता रह गया था.

थोड़ी देर बाद उस से पूछा था, ‘‘शर्मिला, तो तुम दिल्ली वालों को अपना, अपने समाज का दुश्मन समझती हो?’’

आगे पढ़ें- शर्मिला की बात सुन कर मैं…

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