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एक तरफ निरुपमा उस की प्रेमिका, उस के सुखदुख की सच्ची साथी, हमदर्द, जिस ने उस के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया और बदले में कुछ नहीं चाहा था. समाज भले ही उसे मोहित की रखैल कह कर पुकारे पर मोहित स्वयं जानता था कि यह सत्य से परे है. रखैल शब्द में तो कई अधिकार निहित होते हैं. उसे रखने के लिए तो एक संपूर्ण व्यवस्था की आवश्यकता होती है. रोटी, कपड़ा, मकान सभी कुछ जुटाना होता है. बस एक वैधता का सर्टिफिकेट ही तो नहीं होता, लेकिन क्या इतना आसान होता है रखैल रखना?

पर मोहित के लिए आसान था सब कुछ. उस के पास धनदौलत की कमी नहीं थी. वह चाहता तो निरुपमा जैसी 10 रख सकता था. पर निरुपमा स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर स्त्री थी. वह स्वयं के बलबूते पर जीवनयापन करने का माद्दा रखती थी. वर्षों से सिंचित इस संबंध को एक ही झटके में नकारना मोहित के लिए आसान नहीं था.

दूसरी तरफ थी दीप्ति, जो विधिविधान से मोहित की पत्नी बन उस के जीवन में आई थी. पति के सुख में सुख और दुख में दुख मानने वाली दीप्ति ने कभी अपने ‘स्व’ को अस्तित्व में लाने की कोशिश ही नहीं की. जब परस्त्री की पीड़ा दीप्ति के चेहरे पर आंसुओं के रूप में हावी हो जाती, तो मोहित तमाम ऊंचीनीची विवशताओं का हवाला दे कर उसे शांत कर देता.

वर्षों से निरुपमा और दीप्ति के बीच खुद को रख दोनों में बखूबी संतुलन कायम किया था मोहित ने. स्वयं को दोनों की साझी संपत्ति साबित कर दोनों का विश्वास हासिल करने में सफल रहा था वह. नीति को हाशिए पर रख नियति का हवाला दे कर मोहित स्वयं के अपराधबोध को भी मन ही मन साफ करता रहा था.

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