"बहू कुछ दिनों के लिए रश्मि आ रही है. तुम्हें भी मायके गए कितने दिन हो गए, तुम भी शायद तब की ही गई हुई हो, जब पिछली दफा रश्मि आई थी. वैसे भी इस छोटे से घर में सब एकसाथ रहेंगे भी तो कैसे?

"तुम तो जानती हो न उस के शरारती बच्चों को...क्यों न कुछ दिन तुम भी अपने मायके हो आओ," सासूमां बोलीं.

लेकिन गरीब परिवार में पलीबङी अनामिका के लिए यह स्थिति एक तरफ कुआं, तो दूसरी तरफ खाई जैसी ही होती. उसे न चाहते हुए भी अपने स्वाभिमान से समझौता करना पड़ता.

अनामिका आज भी नहीं भूली वे दिन जब शादी के 6-7 महीने बाद उस का पहली दफा इस स्थिति से सामना हुआ था.

तब मायके में कुछ दिन बिताने के बाद मां ने भी आखिर पूछ ही लिया,"बेटी, तुम्हारी ननद ससुराल गई कि नहीं? और शेखर ने कब कहा है आने को?" मां की बात सुन कर अनामिका मौन रही.

उसी शाम जब पति शेखर का फोन आया तो बोला,"अनामिका, कल सुबह 10 बजे की ट्रेन से रश्मि दीदी अपने घर जा रही हैं. मैं उन्हें स्टेशन छोड़ने जाऊंगा और आते वक्त तुम्हें भी लेता आऊंगा। तुम तैयार रहना, जरा भी देर मत करना. तुम्हें घर छोड़ कर मुझे औफिस भी तो जाना है."

कुछ देर शेखर से बात करने के बाद जब वह पास पड़ी कुरसी पर बैठने लगी तो उस पर रखे सामान पर उस की नजर गई। उस ने झट से सामान उठा कर पास पड़ी टेबल पर रखा और कुरसी पर बैठ कर अपनी आंखें मूंद लीं.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...