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पूरे कमरे में बहता खून और खून से सनी लाशें... मासूम बच्चे, बडे़, सब किसी अपने के ही हाथों अपनी जिंदगी गंवा चुके थे. ऊपर जाने वाली सीढि़यों पर भी खून से सने जूतों के निशान, दीवारों पर, सीढि़यों पर, हर तरफ खून के छींटे. कठोर से कठोर दिल वाले पुलिस वालों ने भी ऊपर जा कर देखा तो घबराहट से उन की भी कंपकंपी छूट गई. ऊपर भी लाशें और मां के ही दुपट्टे से गले में फांसी का फंदा लगा झूलता हसन.

मुंबई में ठाणे के इस मुसलिम बहुल इलाके कासारवडावली में छोटीछोटी सड़कों के दोनों तरफ दुकानें थीं. बीचबीच में लोगों के दोमंजिला तिमंजिला खुले मकान. माहौल पूरी तरह से पुराने जमाने के आम मुसलिम परिवारों के महल्ले जैसा ही था. लड़कियां, औरतें बुरके में ही बाहर आतीजाती थीं. लोग आर्थिक दृष्टि से संपन्न थे, पर उन का रहनसहन, लड़कियों की पढ़ाईलिखाई जमाने के हिसाब से आगे नहीं बढ़ पाई थी. लड़के तो पढ़लिख कर फिर भी अच्छे ओहदे पा चुके थे, पर इस इलाके की लड़कियां आज भी थोड़ाबहुत पढ़लिख कर घर तक ही सीमित थीं.

शौकत अली और आयशा बेगम की3 बेटियां थीं- सना, रूबी और हिबा. तीनों बेटियों की उम्र में 2-2 साल का अंतर था. रूबी मानसिक रूप से अस्वस्थ थी. सब से छोटी हिबा से 5 साल छोटा था हसन, आयशा उस पर दिनरात कुरबान होती थीं. अब तक नीचे 2 बैडरूम थे. आयशा ने अब हसन के लिए पहली मंजिल पर एक आरामदायक कमरा बनवा दिया था. हसन की हर सुविधा का ध्यान रखते हुए आयशा ने हर चीज का प्रबंध कर दिया था.

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