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उस दिन शन्नो ताई के आने के बाद सब के चेहरों पर फिर से उम्मीद की किरण चमकने लगी थी. ऐसा होता भी क्यों नहीं, आखिर ताई 2 साल बाद घर की बेटी मासूमी के लिए इतना अच्छा रिश्ता जो लाई थीं. लड़के ने इंजीनियरिंग और एम.बी.ए. की डिगरी ली हुई थी. 2 साल विदेश में रह कर पैसा भी खूब कमाया हुआ था. उस की 32 साल की उम्र मासूमी की 28 साल की उम्र के हिसाब से अधिक भी नहीं थी. खानदान भी उस का अच्छा था. रिश्ता लड़के वालों की तरफ से आया था, सो मना करने की गुंजाइश ही नहीं थी. सब से बड़ी बात तो यह थी कि जिस कारण से मासूमी का विवाह नहीं हो पा रहा था वह समस्या अब 2 साल से सामने नहीं आई थी.

हर मातापिता की तरह मासूमी के मातापिता भी चाहते थे कि बेटी को वे खूब धूमधाम से विदा कर ससुराल भेज सकें. फिर भी उस का विवाह नहीं हो पा रहा था. 2 भाइयों की इकलौती बहन, खातापीता घर और कम बोलने व सरल स्वभाव वाली मासूमी घर के कामों में निपुण थी. खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तों की भी कमी नहीं थी पर समस्या तब आती थी जब कहीं उस के रिश्ते की बात चलती थी.

पहले दोचार दिन तो मासूमी ठीक रहती थी पर जैसे ही रिश्ता पक्का होने की बात होती उसे दौरा सा पड़ जाता था. उस की हालत अजीब सी हो जाती, हाथपैर ठंडे पड़ जाते, शरीर कांपने लगता और होंठ नीले पड़ जाते थे. वह फटी सी आंखों से बस, देखती रह जाती और जबान पथरा जाती थी. सब पूछने की कोशिश कर के हार जाते थे कि मासूमी, कुछ तो बोल, तेरी ऐसी हालत क्यों हो जाती है. तू कुछ बता तो सही. पर मासूमी की जबान पर जैसे ताला सा पड़ा रहता. बस, कभीकभी चीख उठती थी, ‘नहीं, नहीं, मुझे बचा लो. मैं मर जाऊंगी. नहीं करनी मुझे शादी.’ और फिर रिश्ते वालों को मना कर दिया जाता.

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शुरूशुरू में तो उस की हालत को परिवार वालों ने छिपाए रखा. सो रिश्ते आते रहे और वही समस्या सामने आती रही पर धीरेधीरे यह बात रिश्तेदारों और फिर बाहर वालों को भी पता चल गई. तरहतरह की बातें होने लगीं. कोई हमदर्दी दिखाने के साथ उसे तांत्रिकों के पास ले जाने की सलाह देता तो कोई साधुसंतों का आशीर्वाद दिलाने को कहता और कोई डाक्टरों को दिखाने की बात करता, पर कोई बीमारी होती तो उस का इलाज होता न.

एक दिन मौसी से बूआजी ने कह भी दिया, ‘‘मुझे तो दाल में काला लगता है. चाहे कोई माने न माने, मुझे तो लग रहा है कि लड़की कहीं दिल लगा बैठी है और शर्म के मारे मांबाप के सामने मुंह नहीं खोल पा रही है वरना ऐसा क्या हो गया कि इतने अच्छेअच्छे घरों के रिश्ते ठुकरा रही है. अरे, यह जहां कहेगी हम इस का रिश्ता कर देंगे. कम से कम यह आएदिन की परेशानी तो हटे.’’

‘‘हां, दीदी, लगता तो मुझे भी कुछ ऐसा ही है, लेकिन उस समय उस की हालत देखी नहीं जाती. रिश्ते का क्या, कहीं न कहीं हो ही जाएगा. इकलौती भांजी है मेरी, कुछ तो रास्ता खोजना ही पड़ेगा,’’ मौसी दुख से कहतीं.

और फिर जब मौसी ने एक दिन बातों ही बातों में बड़े लाड़ के साथ मासूमी के मन की बात जाननी चाही तो उस की आंखें फटी की फटी रह गईं, जैसे दुनिया का सब से बड़ा दोष उस के सिर मढ़ दिया गया हो. काफी देर बाद संभल कर बोली, ‘‘मौसी, आप ने ऐसा सोचा भी कैसे? क्या आप को मैं ऐसी लगती हूं कि इतना बड़ा कदम उठा सकूं?’’

‘‘नहीं बेटा, यह कोई गुनाह या अपराध नहीं है. हम तो बस, तेरे मन की बात जान कर तेरी मदद करना चाहते हैं, तेरा घर बसाना चाहते हैं.’’

‘‘क्या कहूं मौसी, मैं तो खुद हैरान हूं कि रिश्ते की बात चलते ही जाने मुझे क्या हो जाता है. बस, यह समझ लीजिए कि मुझे शादी के नाम से नफरत है. मैं सारी जिंदगी शादी नहीं करूंगी,’’ मासूमी सिर झुकाए कहती रही और फिर सच में वह 18 से 28 साल की हो गई पर उस ने शादी के लिए हां नहीं की.

हालांकि कई बार मासूमी को विवाह की अहमियत का एहसास होता था कि मातापिता नहीं रहेंगे, भाई शादी के बाद अपने घरपरिवार में व्यस्त हो जाएंगे तो उसे कौन सहारा देगा. उसे भी शादी कर के घर बसा लेना चाहिए. उस की सखीसहेलियों के विवाह हो चुके थे और कितनों के तो बच्चे भी हो गए हैं.

अब इतने लंबे समय के बाद इस उम्र में उस के लिए इतना अच्छा रिश्ता आया था. सब को यही उम्मीद थी कि अब इतना समय गुजरने के बाद वह समझदार हो गई होगी और सोचसमझ कर फैसला लेगी पर मासूमी ने फिर मना कर दिया था. पूरे हफ्ते तो इसी उधेड़बुन में लगी रही और आखिर में उसे यही लगा कि विवाह का रिश्ता संभालने में वह असफल रहेगी.

उस रात वह जी भर कर रोई. इन सब बातों में उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि उसे लगता था कि वह किसी की जिंदगी में शामिल हो कर उसे कोई खुशी देने के लायक नहीं है. रात भर अनेक विचार उस के दिमाग में आतेजाते रहे और सुबह उसे फिर दौरा पड़ गया था.

मां ने मासूमी के सिर में नारियल के तेल की मालिश की थी. उसे बादाम का दूध पिलाया था. दोनों भाई बारबार उसे आ कर देख जाते थे. पिता उस के बराबर में सिर झुकाए बैठे सोच रहे थे कि आखिर क्या दुख है मेरी बेटी को? कोई कमी नहीं है. सब लोग इसे इतना प्यार करते हैं, फिर कौन सा दुख है जो इसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है? पर मासूमी के होंठों पर फैली उस फीकी मुसकान का राज कोई नहीं समझ सका जिस ने उस के अस्तित्व को ही टुकडे़टुकड़े कर दिया था.

मासूमी ने बहुत कोशिश की थी खुद को बहलाने की, अकेली जिंदगी के कड़वे सच का आईना खुद को दिखाने की, लेकिन हर बार मायूसी ही उस के हाथ लगी थी. बिस्तर पर लेटी आंखें छत पर जमाए वह अतीत की गलियों से गुजर रही थी कि भाई राकेश की आवाज पर ध्यान गया, जिस ने गुस्से में पहले गमले को ठोकर मारी फिर अंदर आ कर मां से बोला, ‘‘मां, आप पापा को समझा दीजिए. उन्हें कुछ तो सोचना चाहिए कि वे कहां बोल रहे हैं. हमें कहीं भी डांटना, गाली देना शुरू कर देते हैं. हमारी इज्जत का उन्हें तनिक भी खयाल नहीं है. अब हम बच्चे तो नहीं रहे न.’’

मां ने हड़बड़ाते हुए रसोई से आ कर राकेश की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उस ने मन की भड़ास निकाल दी. 16 साल का राकेश मां से अपने पिता के व्यवहार की शिकायत कर रहा था और मां मौके की नजाकत भांप कर बेटे को समझा रही थीं.

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‘‘बेटा, मैं तुम्हारे पापा से बात करूंगी कि इस बात का ध्यान रखें. वैसे बेटा, तुम यह तो समझते ही हो कि वे तुम से कितना प्यार करते हैं. तुम्हारी हर फरमाइश भी पूरी करते हैं. अब गुस्सा आता है तो वे खुद को रोक नहीं पाते. यही कमी है उन में कि जराजरा सी बात पर गुस्सा करना उन की आदत बन गई है. तुम उसे दिल पर मत लिया करो.’’

‘‘रहने दो मां, पापा को हमारी फिक्र कहां, कभी भी, कहीं भी हमारी बेइज्जती कर देते हैं. दोस्तों के सामने ही कुछ भी कह देते हैं. तब यह कौन देख रहा है कि वे हमें कितना प्यार करते हैं. लोग तो हमारा मजाक बनाते ही हैं.’’

राकेश अभी भी गुस्से से भनभना रहा था और उस की मां सरला माथा पकड़ कर बैठ गई थीं, ‘‘मैं क्या करूं, तुम लोग तो मुझे सुना कर चले जाते हो पर मैं किस से कहूं? तुम क्या जानो, अगर तुम्हारे पिता के पास कड़वे बोल न होते तो दुख किस बात का था. उन की जबान ने मेरे दिल पर जो घाव लगा रखे हैं वे अभी तक भरे नहीं और आज तुम लोग भी उस का निशाना बनने लगे हो. मैं तो पराई बेटी थी, उन का साथ निभाना था, सो सब झेल गई पर तुम तो हमारे बुढ़ापे की लाठी हो, तुम्हारा साथ छूट गया तो बुढ़ापा काटना मुश्किल हो जाएगा. काश, मैं उन्हें समझा सकती.’’

तभी परदे के पीछे सहमी खड़ी मासूमी धड़कते दिल से मां से पूछने लगी, ‘‘मां, क्या हुआ, भैया को गुस्सा क्यों आ रहा था?’’

‘‘नहीं बेटा, कोई बात नहीं, तुम्हारे पापा ने उसे डांट दिया था न, इसीलिए कुछ नाराज था.’’

‘‘मां, आप पापा से कुछ मत कहना. बेकार में झगड़ा शुरू हो जाएगा,’’ डर से पीली पड़ी मासूमी ने धीरे से कहा.

‘‘तू बैठ एक तरफ,’’ पहले से ही भरी बैठी सरला ने कहा, ‘‘उन से बात नहीं करूंगी तो जवान बेटों को भी गंवा बैठूंगी. क्या कर लेंगे? चीखेंगे, चिल्लाएंगे, ज्यादा से ज्यादा मार डालेंगे न, देखूंगी मैं भी, आज तो फैसला होने ही दे. उन्हें सुधरना ही पड़ेगा.’’

सरला जब से ब्याह कर आई थीं उन्होंने सुख महसूस नहीं किया था. वैसे तो घर में पैसे की कमी नहीं थी, न ही सुरेशजी का चरित्र खराब था. बस, कमी थी तो यही कि उन की जबान पर उन का नियंत्रण नहीं था. जराजरा सी बात पर टोकना और गुस्सा करना उन की सब से बड़ी कमी थी और इसी कमी ने सरला को मानसिक रूप से बीमार कर दिया था.

वे तो यह सब सहतेसहते थक चुकी थीं, अब बच्चे पिता की तानाशाही के शिकार होने लगे हैं. बच्चों को बाहर खेलने में देर हो जाती तो वहीं से गालियां देते और पीटते घर लाते, उन के पढ़ने के समय कोई मेहमान आ जाता तो सब को एक कमरे में बंद कर यह कहते हुए बाहर से ताला लगा देते, ‘‘हरामजादो, इधर ताकझांक कर के समय बरबाद किया तो टांगें तोड़ दूंगा. 1 घंटे बाद सब से सुनूंगा कि तुम लोगों ने क्या पढ़ा है? चुपचाप पढ़ाई में मन लगाओ.’’

उधर सरला उस डांट का असर कम करने के लिए बच्चों से नरम व्यवहार करतीं और कई बार उन की गलत मांगों को भी चुपचाप पूरा कर देती थीं. पर आज तो उन्होंने सोच रखा था कि वे सुरेशजी को समझा कर ही रहेंगी कि जब बाप का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो उस से दोस्त जैसा व्यवहार करना चाहिए. वरना कल औलाद ने पलट कर जवाब दे दिया तो क्या इज्जत रह जाएगी. औलाद भी हाथ से जाएगी और पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.

अपने विचारों में सरला ऐसी डूबीं कि पता ही नहीं चला कि कब सुरेशजी घर आ गए. घर अंधेरे में डूबा था. उन्होंने खुद बत्ती जलाई और उन की जबान चलने लगी :

‘‘किस के बाप के मरने का मातम मनाया जा रहा है, जो रात तक बत्ती भी नहीं जलाई गई. मासूमी, कहां है, तू ही यह काम कर दिया कर, इन गधों को तो कुछ होश ही नहीं रहता.’’

फिर उन्होंने तिरछी नजरों से सरला को देखा, ‘‘और तुम, तुम्हें किसी काम का होश है या नहीं? चायपानी भी पिलाओगी या नहीं? मासूमी, तू ही पानी ले आ.’’

उधर मासूमी मां की आड़ में छिपी थी. उस का दिल आज होने वाले झगड़े के डर से कांप रहा था. फिर भी उस ने किसी तरह पिता को पानी ला कर दिया. पानी पीते उन्होंने मासूमी से पूछा, ‘‘इन रानी साहिबा को क्या हुआ?’’

मासूमी के मुंह से बोल नहीं फूटे तो हाथ के इशारे से मना किया, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘वे दोनों नवाबजादे कहां हैं?’’

‘‘पापा, बड़े भैया का आज मैच था. वे अभी नहीं आए हैं और छोटे किसी दोस्त के यहां नोट्स लेने गए हैं,’’ किसी अनिष्ट की आशंका मन में पाले मासूमी डरतेडरते कह रही थी.

‘‘हूं, ये सूअर की औलाद सोचते हैं कि बल्ला घुमाघुमा कर सचिन तेंदुलकर बन जाएंगे और दूसरा नोट्स का बहाना कर कहीं आवारागर्दी कर रहा है, सब जानता हूं,’’ सुरेशजी की आंखें शोले बरसाने को तैयार थीं.

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बस, इसी अंदाज पर सरला कुढ़ कर रह जाती थीं. उन की आत्मा तब और छलनी हो जाती जब बच्चे पिता की इस ज्यादती का दोष भी उन के सिर मढ़ देते कि मां, अगर आप ने शुरू से पिताजी को टोका होता या उन का विरोध किया होता तो आज यह नौबत ही नहीं आती. मगर वे बच्चों को कैसे समझातीं, यहां तो पति के विरोध में बोलने का मतलब होता है कुलटा, कुलक्षिणी कहलाना.

वे तब उस इनसान की पत्नी बन कर आई थीं जब पुरुष अपनी पत्नियों को किसी काबिल नहीं समझते थे घर में उन की कोई अहमियत नहीं होती थी, न ही बच्चों के सामने उन की इज्जत की जाती थी. वरना सरला यह कहां चाहती थीं कि पितापुत्र का सामना लड़ाईझगड़े के सिलसिले में हो और इसीलिए सरला ने खुद बहुत संयम से काम ले कर पितापुत्र के बीच सेतु बनने की कोशिश की थी.

उन्होंने तो जैसेतैसे अपना समय निकाल दिया था पर अब नया खून बगावत का रास्ता अपनाने को मचल रहा था और इसी के चलते घर के हालात कब बिगड़ जाएं, कुछ भरोसा नहीं था और इन सब बातों का सब से बुरा असर मासूमी पर पड़ रहा था.

मासूमी मां की हमदर्द थी तो पिता से भी उसे बहुत स्नेह था, लेकिन जबतब घर में होने वाली चखचख उस को मानसिक रूप से बीमार करने लगी थी. स्कूल जाती तो हर समय यह डर हावी रहता कि कहीं पिताजी अचानक घर न आ गए हों क्योंकि राकेश भाई अकसर स्कूल से गायब रहते थे…और घर में रहते तो तेज आवाज में गाने सुनते थे…इन दोनों बातों से पिता बुरी तरह चिढ़ते थे.

मां राकेश को समझातीं तो वह अनसुनी कर देता. उसे पता था कि पिता ही मां की बातों पर ध्यान नहीं देते हैं इसलिए उन का क्या है बड़बड़ करती ही रहेंगी. ऐसे में किसी अनहोनी की आशंका मासूमी के मन को सहमाए रखती और स्कूल से घर आते ही उस का पहला प्रश्न होता, ‘मां, पापा तो नहीं आ गए? भैया स्कूल गए थे या नहीं? पापा ने प्रकाश भाई को क्रिकेट खेलते तो नहीं पकड़ा? दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’

मां उसे परेशानी में देखतीं तो कह देती थीं, ‘क्यों तू हर समय इन्हीं चिंताओं में जीती है? अरे, घर है तो लड़ाईझगड़े होंगे ही. तुझे तो बहुत शांत होना चाहिए, पता नहीं तुझे आगे कैसा घरवर मिले.’

मगर मासूमी खुद को इन बातों से दूर नहीं रख पाती और हर समय तनावग्रस्त रहतेरहते ही वह स्कूल से कालेज में आ गई थी और आज फिर वह दिन आ गया था जो किसी आने वाले तूफान का संकेत दे रहा था.

-क्रमश:

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