मजदूर सारा सामान उतार कर जा चुके थे. बिखरा सामान रेलवे प्लेटफार्म का सा दृश्य पेश कर रहा था. अब शुरू कहां से करूं, यही समझ नहीं पा रही थी मैं. बच्चे साथ होते तो काफी बोझ अब तक घट भी गया होता. पूरी उम्र जो काम आसान लगता रहा था, अब वही पहाड़ जैसा भारीभरकम और मुश्किल लगने लगा है. 50 के आसपास पहुंचा मेरा शरीर अब भला 30-35 की चुस्ती कहां से ले आता. अपनी हालत पर रोनी सूरत बन चुकी थी मेरी.
‘‘कोई मजदूर ले आऊं, जो सामान इधरउधर करवा दे?’’ पति का परामर्श कांटे सा चुभ गया.
‘‘अब रसोई का सामान मजदूरों से लगवाऊंगी मैं, अलमारियों में कपड़े और बिस्तर कोई मजदूर रखेगा…आप ही क्योें नहीं हाथ बंटाते.’’
‘‘मेरा हाथ बंटाना भी तो तुम्हें नहीं सुहाता, फिर कहोगी पता नहीं कहां का सामान कहां रख दिया.’’
‘‘तो जब आप का सामान रखना मुझे नहीं सुहाता तो कोई मजदूर कैसे…’’
झगड़ पड़े थे हम. हर 3 साल के बाद तबादला हो जाता है. 4-5 हफ्ते तो कभी नहीं लगे थे नई जगह में सामान जमाने में मगर इस घर में काफी समय लग गया. एक तो घर छोटा था उस पर बारबार नई व्यवस्था करनी पड़ रही थी.
यों भी पूरी उम्र बीत गई है तरहतरह के घरों में स्वयं को ढालने में. इस का हमें फर्क ही नहीं पड़ता. पिछले घर का सुख नए घर में नहीं होता फिर भी नए घर में कुछ ऐसा जरूर मिल जाता है जो पिछले घर में नहीं होता.
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नया घर छोटा है…बाकी घर इतने पासपास हैं कि साथ के घर में हंसतेबोलते लोग इतना एहसास अवश्य दिला जाते हैं कि आप अकेली नहीं हैं.
घर के बाहर आतेजाते, सब्जी बेचने वाले से सब्जी खरीदते चेहरे जानेपहचाने लगने लगे हैं. सामने सुंदर पार्क है. बेटी की शादी हो चुकी है और बेटा बाहर पढ़ता है. पति की नौकरी ऐसी है कि रात को 8 बजे से पहले वे कभी नहीं आते.
पुरानी जगह पर थे तब बड़ा घर मुसीबत लगता था, बाई न आए तो साफसफाई ही मुश्किल हो जाती थी. बड़े घर में रहने का शौक पूरा हो गया था. इतना बड़ा घर भी किस काम का जो भुतहा महल जैसा लगे.
धीरधीरे आसपड़ोस में एकदो परिवारों से जानपहचान हो गई. बगल के परिवार के छोटेछोटे बच्चे अति स्नेह देने लगे. अब दादीनानी बनने की उम्र है न मेरी, बहुत अच्छा लगता है जब छोटेछोटे बच्चे आगेपीछे घूमें.
घर के बिलकुल सामने एक बुजुर्ग दंपती नजर आते हैं. उन का घर अकसर बंद ही रहता, सुबह जब बाई काम करने आती तभी वह गेट खुलता. सामने नजर आती है बड़ी सी महंगी गाड़ी और बड़ा सा सुंदर गमला जिस में रंगबिरंगे फूल नजर आते हैं. इस से आगे कभी मेरी नजर ही न जाती.
घर की मालकिन का स्वभाव मुझे यहीं से समझ में आता है. शौकीन तबीयत और साफसुथरा मिजाज अवश्य ही इस महिला के चरित्र का अभिन्न अंग होगा. पता चला कि इन के बच्चे अच्छे हैं, ऊंचे ओहदों पर हैं और मांबाप का बहुत खयाल रखते हैं. कभीकभार उन की गाड़ी बाहर निकलती तो लगभग 75 साल की उम्र में भी इस महिला का बननासंवरना उस की जिंदा- दिली दर्शा जाता.
‘‘देखा न, इसे कहते हैं जीना. मैं बाल काले करता हूं तो तुम मना करती हो.’’
‘‘आंखों पर केमिकल्स का असर होता है इसलिए मना करती हूं.’’
‘‘तुम अभी से अपने को बूढ़ी मानती हो…वह देखो, इन के पोतेपोती भी सुना है कालेज में पढ़ते हैं…तुम तो अभी न दादी बनी हो न नानी और इतने हलके रंग के कपड़े पहनती हो.’’
‘‘बस, मुझे किसी से मत मिलाओ. वो वो हैं और मैं मैं.’’
पति हाथ हिला कर नहाने चले गए. सुबहसुबह और बहस करने का न मेरे पास समय था और न ही इन के पास. मगर यह सत्य है कि इन का बाल काले करना मुझे पसंद नहीं.
सर्दी से पहले दीवाली पर बेटा घर आया तो दीवान गेट के पास सजा कर धूप की व्यवस्था कर गया. सर्दी बढ़ने लगी और धीरधीरे मेरा समय दीवान पर ही बीतने लगा.
एक रात सहसा किसी के झगड़े से नींद खुली. कोई भद्दीभद्दी गालियां दे रहा था. घड़ी देखी तो रात के 2 बजे थे. कौन हो सकता है. नींद ऐसी उखड़ी कि फिर देर तक सो ही नहीं पाए हम. दूसरे दिन अपने नन्हेमुन्ने मित्रों की मां से बात की. हाथ हिला कर हंस दी वह.
‘‘अरे दीदी, वह सामने वाला जोड़ा है. हां, इस बार दौरा जरा देर से पड़ा है इसलिए आप को पता नहीं चला वरना तो ये दोनों रोज ही महल्ले भर का मनोरंजन करते हैं. दरअसल, महीने भर से अंकल घूमनेफिरने बाहर गए थे, सो शांति से वक्त बीत गया.’’
अवाक् सी मैं बीना से बोली, ‘‘75-80 साल का जोड़ा जिस की एक टांग कब्र में है और दूसरी इस जहान में, क्या वह इतनी बेशर्मी से लड़ता है.’’
‘‘अरे दीदी, पिछले कई वर्षों से हम इन्हें इसी तरह लड़तेझगड़ते देख रहे हैं. जब मैं शादी कर के आई थी तभी से इन का तमाशा देख रही हूं. अब तो आसपास वालों को भी आदत सी हो गई है. कोई भी गंभीरता से नहीं लेता इन्हें.’’
‘‘लेकिन लड़ाई की वजह क्या है?’’ मैं ने कहा, ‘‘इन के पास सबकुछ तो है.’’
?‘‘खाली दिमाग शैतान का घर होता है दीदी, कहते हैं न जब शरीर की ताकत का उचित उपयोग न हो सके तो वह ताकत गलत कामों में खर्च होने लगती है.’’
बीना कालेज में मनोविज्ञान की प्राध्यापिका है. उम्र में मुझ से 15-16 साल छोटी होगी लेकिन बात इतनी गहराई से समझाने लगी कि मानना ही पड़ा मुझे.
‘‘3 बेटे हैं इन के. एक तो शहर का मशहूर डाक्टर है, दूसरा अमेरिका में और तीसरा मनोविज्ञान का प्रोफेसर है. 2 बेटे इसी शहर में हैं. प्रोफेसर बेटा तो मेरा ही वरिष्ठ सहयोगी है. अकसर मेरी उन से बात होती रहती है. इन दोनों का हालचाल मैं उन्हें बताती रहती हूं.’’
‘‘बच्चे मांबाप के साथ क्यों नहीं रहते?’’
‘‘उन के बड़े होते बच्चे हैं दीदी, दादादादी का झगड़ा उन का दिमाग खराब कर देगा.’’
‘‘अरे, झगड़ा किस घर में नहीं होता. मेरे पति और मैं भी दिन में एक बार उलझ ही जाते हैं.’’
‘‘आप की उलझन का कारण कोई बाहर की औरतें तो नहीं होंगी न.’’
‘‘तुम्हारा मतलब इस उम्र में अंकल का कहीं बाहर…’’
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‘‘जी हां, कोई पुराना रिश्ता उम्र भर साथ चलता रहे तो भी समझ में आता है कि पुरुष जबान का पक्का है. प्यार को भी दरबदर नहीं कर रहा, बीवी को भी निभा रहा है और सारी तोहमतें सिर पर ले कर भी प्रेमिका का हाथ नहीं छोड़ा. सभ्य समाज में खुलेआम इसे भी स्वीकारा नहीं जाता फिर भी एक पुरुष का चरित्र जरा सा तो समझ में आता है न. कहीं वह जुड़ा है, किसी के साथ तो बंधा है, मरेगा तो आंसू बहाने वाली 1 नहीं 2 होंगी. इन महाशय की तरह तो नहीं होगा कि मरेंगे और घर वाले शुक्र मनाएंगे. हजारों गोपियां हैं इन की. कौनकौन रोएंगी? जो सब का हो कर जीता है वह वास्तव में किसी का नहीं होता.’’
शाम को पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी और बोले, ‘‘मैं ने भी कुछ ऐसी ही कहानियां सुनी हैं इन के बारे में, जहां इन के बेटे का नाम आता है वहीं इस नालायक पिता के बारे में बताने से भी लोग नहीं चूकते. मुझे भी आज ही पता चला है कि मशहूर डाक्टर विजय गोयल इन्हीं का बेटा है.’’
‘‘क्या? वही जिसे आप अपनी बीमारी दिखाने गए थे?’’
कुछ दिन पहले पति की कमर में अकड़न सी थी जिसे वह हड्डी विशेषज्ञ को दिखाने गए थे. बेटा संसार भर की हड्डियां ठीक करता है और कितनी बड़ी विडंबना है कि अपने ही घर की रीढ़ की हड्डी का इलाज नहीं कर सकता.
जब कभी भी श्रीमती गोयल भीनी सुगंध महकाती गाड़ी में बैठ कर निकलती हैं तो मन होता कि उन से मिलूं और पूछूं कि कैसे जीती हैं वे जिन का पति परिवार का मानसम्मान गंदी नाली में डाल अपना और परिवार का सर्वनाश कर रहा है.
एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि उन से मुलाकात हो गई. उन के घर की बिजली गुल हो गई थी. वे मेरे घर पूछने आई थीं कि क्या मेरी भी बिजली नहीं है या सिर्फ उन की ही गुल है.
‘‘आइए न श्रीमती गोयल, कृपया अंदर आइए,’’ यह कहते हुए उन का हाथ पकड़ कर मैं उन्हें कमरे में ले आई थी. मेरी मां की उम्र की हैं, लेकिन रखरखाव और वेशभूषा वास्तव में इतनी अच्छी थी कि मैं उन के सामने फीकी लगूं.
‘‘हम नए आए हैं न महल्ले में, बहुत इच्छा थी कि आप से मिलूं. पड़ोस में दोस्ती होनी चाहिए न. रिश्तेदारों से पहले तो पड़ोसी ही काम आते हैं.’’
‘‘हां, हां, बेटा, क्यों नहीं. तुम्हीं आ जातीं. चाय साथसाथ पीते. मैं भी तुम से मिलना चाहती थी. अकसर छत से तुम्हें अचार का मर्तबान कभी धूप में तो कभी छाया में रखते देखती हूं.’’
‘‘जी, कुछ बेटी के घर भेजूंगी, कुछ आप को भी दूंगी. कौन सा अचार पसंद है आप को.’’
अचार का सिरा पकड़ जो बात शुरू हुई तो सीधी श्रीमती गोयल तक जा पहुंची. बातचीत का दौर चला तो सारी परतें खुलती चली गईं. कुछ ही दिन में मेरी मां की उम्र की महिला मेरी अंतरंग दोस्त बन गईर्ं. वे अकसर मेरे साथ ही धूप सेंकतीं और मन की पीड़ा बांटतीं.
‘‘शर्म आती थी पहले घर से बाहर निकलते हुए. सोचती थी लोग क्या कहेंगे. घर के अंदर तो पतिपत्नी कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते हैं और जब पत्नी सजसंवर कर बाहर निकलती है तो किस नजर से सब से नजर मिलाती है. यह तो भला हो मेरे बेटों का जिन्होंने मुझे जिंदा रखा वरना इस आदमी की वजह से कब की मर गई होती मैं.’’
‘‘क्या गोयल साहब सदा से इसी चरित्र के हैं?’’
‘‘हां, वे सदा से औरतबाज हैं…सच पूछो तो इस सीमा तक बेशर्म भी कि अपनी रासलीला चटकारे लेले कर मुझे ही सुनाते रहते हैं…उस पर दलील यह कि मैं उन का साथ नहीं दे पाती, इसीलिए जरूरत पूरी करने के लिए बाहर जाते हैं.’’
‘‘80 साल की उम्र में भी उन की जरूरत क्या इतनी तीव्र है कि मानमर्यादा सब ताक पर रख कर वे बाहर जाते हैं?’’
मां समान औरत से ऐसा प्रश्न पूछना मैं चाहती तो नहीं थी पर एक लेखिका होने के नाते मैं इस लोभ से उठ नहीं पाई कि जान पाऊं उस महिला की मानसिक स्थिति, जिस का पति ऐसा बदचलन है और जिस के सामने यह प्रश्न कोई माने नहीं रखता कि कोई उस के बारे में क्या सोचता है. समाज का डर ही तो है, जो इनसान को मर्यादा में बांधता है.
‘‘80 साल के तो वे अब हैं, जब 30 साल के थे तब तो मैं साथ देती ही थी न. तब भी तो बाहर का स्वाद उन के लिए सर्वोपरि था.’’
उन की आंखें भर आई थीं. फूटफूट कर रो पड़ी थीं वे. मेरा मन भी भर आया था उन की हालत पर.
‘‘सदा पति की रंगबिरंगी प्रेम कहानियां ही सुनती रही मैं. मेरी अपनी तो कोई प्रेम कहानी बनी ही नहीं, पति के साथ भी मैं इसी तरह जीती रही जैसे कोई पड़ोसी हो… ऐसा बदचलन पड़ोसी जो जब जी चाहे दीवार फांद कर आए और मेरा इस्तेमाल कर चलता बने.’’
‘‘तब तलाक का फैशन कहां था जो छोड़ कर ही चली जाती. 3-3 बच्चों के साथ कहां जा कर रहती. यह तो अच्छा हुआ जो मेरे घर बेटी न हुई. बेटी हो जाती तो कौन स्वीकारता उसे? जिस का ऐसा पिता हो उस से कौन इज्जतदार नाता बांधता.’’ आंखें पोंछ ली थीं श्रीमती गोयल ने.
‘‘कहते हैं न जीवन में सब का अपनाअपना हिस्सा होता है. शायद ऐसा पति ही मेरा हिस्सा था. जैसा मिला उसी को निभा रही हूं. बस, प्रकृति की आभारी हूं जो बेटे चरित्रवान और मेधावी निकल गए वरना मेरा बुढ़ापा भी जवानी की तरह ही रोतेपीटते निकल जाता. जो सुख मुझे अपने पति से मिलना चाहिए था वह मेरी बहुएं और मेरे बच्चे मुझे देते हैं.’’
‘‘मेरी मां समझाया करती थीं कि सदा बनसंवर कर रहा करूं ताकि पति पल्लू से बंधा रहे. वैसा ही आज तक कर रही हूं…पर जिस को नहीं बंधना होता वह कभी नहीं बंध सकता. घाटघाट का पानी ही जिसे तृप्ति दे उसे एक ही बरतन का जल कभी संतुष्ट नहीं कर सकता.’’
‘‘अंकल के पास इतने पैसे कहां से आते हैं. क्या बाहर का शरीरसुख मुफ्त में मिल जाता है और फिर इस उम्र में आदमी रुपए ही तो लुटाएगा, जवानी और खूबसूरती उन के पास है कहां, जिस पर कोई कम उम्र की लड़की फिसले.’’
‘‘भविष्यनिधि की अपनी सारी रकम लगा कर उन्होंने एक अलग घर बनाया है. ज्यादा समय तो वे वहीं गुजारते हैं. घर आते हैं तो वही गालीगलौज.’’
‘‘गालीगलौज की वजह क्या है?’’
‘‘वजह यह है कि मैं जिंदा क्यों हूं. मर जाऊं तो वे बाहरवालियों के साथ चैन से इस घर में रह सकते हैं न…अब मैं मर कैसे जाऊं, तुम्हीं बताओ. पहले ही इतना संताप सह रही हूं, पता नहीं वह मेरे किस दुष्कर्म का फल है. अब आत्महत्या कर के पाप का बोझ क्या और बढ़ा लूं? एकदो बार तो वे मुझे मारने की कोशिश भी कर चुके हैं. मगर मैं हूं ही इतनी सख्तजान कि मेरी जान नहीं निकलती.’’
इतना कह कर श्रीमती गोयल फिर रोने लगी थीं.
– क्रमश:
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