मुकदमा साधारण था मगर कचहरी के चक्कर लगातेलगाते सोमेश को महीनों हो चले थे. उस के पिताजी भी कई पेशियों मेें साथ गए थे. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. विरोधी पक्ष वाले चंटचालाक थे. हर बार जोड़तोड़ कर या तो तारीख डलवा लेते या फिर कोई नया पेंच फंसा देते थे. लिहाजा, साधारण सा दिखने वाला मुकदमा खासा लंबा समय ले गया था.

शहर में सोमेश के दादा लाहौरी राम के कई मकान और दुकानें थीं. वे पटवारी के पद पर तैनात हो कर कानूनगो के पद से रिटायर हुए थे. ऊपरी कमाई से खासी बरकत थी. सस्ते जमाने में जमीनजायदाद खासी सस्ती थी. आजकल के जमाने के मुकाबले तब आम लोगों की कमाई काफी कम थी. मकान, दुकान खरीदने, बनाने का रुझान लोगों में कम ही था.

अनेक मकानों, दुकानों से किराया आ रहा था.

कभीकभार मकान या दुकान खाली करवाने या किराया वसूलने के लिए मुकदमा डालना पड़ता था.

मगर अब धीरेधीरे उन की सक्रियता कम हो चली थी. उन्होंने सब लेनदेन अपने बेटे संतराम और जवान होते पोते सोमेश को संभलवा दिया था.

संतराम भी सरकारी मुलाजिम था मगर उस में अपने रिटायर्ड कानूनगो बाप जितनी जोड़तोड़ की प्रतिभा और चालाकी न थी.

लाहौरी राम ने गरीबी और अभाव के दिनों में मेहनतमशक्कत की थी जिस से उन में स्वाभाविक तौर पर दृढ़ इच्छाशक्ति, हर स्थितिपरिस्थिति से निबटने की क्षमता विकसित हो गई थी.

वहीं संतराम जैसे मुंह में चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुआ था. इसलिए उस मेें अपने पिता समान दृढ़ता और मजबूती न थी.

ये भी पढ़ें- Women’s Day Special: अपने हुए पराए- श्वेता को क्यों मिली फैमिली की उपेक्षा

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...