मैं  और बूआ अभी चर्चा कर ही रही थीं कि आज किसी के पास इतना समय कहां है जो एकदूसरे से सुखदुख की बात कर सके. तभी कहीं से यह आवाज कानों में पड़ी-

मैं किसे कहूं मेरे साथ चल,

यहां सब के सर पे सलीब है

कोई दोस्त है न रकीब है

तेरा शहर कितना अजीब है.

यहां किस का चेहरा पढ़ा करूं

यहां कौन इतने करीब है...

‘‘सच ही तो कह रहा है गाने वाला. आज किस के पास इतना समय है, जो किसी का चेहरा पढ़ा जा सके. अपने आप को ही पूरी तरह आज कोई नहीं जानता, अपना ही अंतर्मन क्या है क्या नहीं? हर इनसान हर पल मानो एक सूली पर लटका नजर आता है.’’

मैं ने कहा तो बूआ मेरी तरफ देख कर तनिक मुसकरा दीं.

‘‘सलीब सिर पर उठाने को कहा किस ने? उतार कर एक तरफ रख क्यों नहीं देते और रहा सवाल चेहरा पढ़ने का तो वह भी ज्यादा मुश्किल नहीं है. बस, व्यक्ति में एक ईमानदारी होनी चाहिए.’’

‘‘ईमानदार कौन होना चाहिए? सुनाने वाला या सुनने वाला?’’

‘‘सुनने वाला, सुनाने वाले की पीड़ा को तमाशा न बना दे, उस का दर्द समझे, उस का समाधान करे.’’

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अकसर बूआ की बातों से मैं निरुत्तर हो जाती हूं. बड़ी संतुष्ट प्रवृत्ति की हैं मेरी बूआ. जो उन के पास है उस का उन्हें जरा भी अभिमान नहीं और जो नहीं उस का अफसोस भी नहीं है.

‘‘किसी दूसरे की थाली में छप्पन भोग देख कर अपनी थाली की सूखी दालरोटी पर अफसोस मत करो. अगर तुम्हारी थाली में यह भी न होता तो तुम क्या कर लेतीं? अपनी झोंपड़ी का सुख ही परम सुख होता है. पराया महल मात्र मृगतृष्णा है. सुख कहीं बाहर नहीं है...सुख यहीं है तुम्हारे ही भीतर.’’

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