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यह सोच कर मैं सब बरदाश्त कर रही थी कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा. लेकिन, नहीं, जैसेजैसे दिन बीतते जा रहे थे, हालात और बद से बदतर होते जा रहे थे. उन के ज्यादा शराब पी कर घर आने पर जब मैं टोकती, तो वह उलटासीधा बकने लगते थे, गंदीगंदी गलियां देने लगते थे मुझे. कहते, ‘क्या तुम्हारे बाप के पैसे से पीता हूं, जो बकबक करती है?” अर्णब को देख कर जरा भी नहीं लगता था कि वह एक ऊंचे अधिकारी हैं.

बेटा जिगर 4 साल का हो चुका था. उसे भी अब अपने पापा की गंदी आदतें समझ में आने लगी थीं. अर्णब को औफिस से आए देखते ही वह मेरे पीछे आ कर छुप जाता, झांक कर देखता अपने पापा को, शराब की बोतलें खोलते हुए. नशे में उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि घर में एक छोटा बच्चा है. उस के सामने ही वह गालियां देने लगते तो मैं बेटे जिगर को ले कर वहां से चली जाती. पर कहां तक भागती? सुनाई तो दे ही जाती थी न. कभीकभी तो डर लगता कि कहीं इन सब का असर जिगर पर न पड़ने लगे. बच्चे का मन कोरा कागज की तरह होता है. वह अपने मातापिता और बड़ों को जैसा करते देखते हैं वही तो सीखते हैं. लेकिन, मैं अपने बेटे को वैसा हरगिज नहीं बनने देना चाहती थी, इसलिए जहां तक होता, मैं उसे अर्णब से दूर रखने की कोशिश करती. उसे खुद ही पढ़ातीलिखाती और अच्छे संस्कार डालने की कोशिश करती थी.

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