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‘‘माफी मांगूंगा, मैं?’’

‘‘अरे, यह बस फौर्मेलिटी है. दो शब्द कह देने में क्या जाता है? उम्र में पिता समान हैं और मालिक हैं.’’

‘‘कभी नहीं...’’

पंडितजी का खून जाग उठा विशू की धमनियों में. वह पंडितजी जो आज भी न्याय, निष्ठा, सदाचार, सपाटबयानी व सत्यवचन के लिए जाने जाते हैं, उन की प्रथम संतान, इतना नहीं गिर सकती.

‘‘प्रश्न ही नहीं उठता माफी मांगने का. गलत वे हैं, मैं नहीं. माफी उन को मुझ से मांगनी चाहिए.’’

फिर से जल उठी रीमा, ‘‘तो तुम त्यागपत्र वापस नहीं लोगे, माफी नहीं मांगोगे?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं...’’

‘‘ठीक,’’ अनपढ़ गंवार महिलाओं की तरह मुंह बिदका कर रीमा चीखी, ‘‘तो अब मजे करो, बीवी की रोटी तोड़ो, उस की कमाई पर मौजमस्ती करो.’’

विशू का मुंह खुला का खुला रह गया. क्या स्वार्थ का नग्न रूप देख रहा है वह. पहले तो यही रीमा प्रेम में समर्पण, त्याग और मधुरता की बात करती थी पर उस के स्वार्थ पर चोट लगते ही क्या रूपांतरण हो गया. विशू की नजरों में सब से सुंदर मुख आज कितना भयंकर और कुरूप हो उठा है. वह अपलक उसे देखता रहा.

क्रोध में भुनभुनाती रीमा तैयार हुई. डट कर नाश्ता किया, गैराज से अपनी गाड़ी निकाल औफिस चली गई. अब लंच में लौटेगी बच्चों को स्कूल से ले कर 2 बजे. 3 बजे फिर जा कर फिर लौटेगी 5 बजे. रोज का यही रुटीन है उस का.

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रीमा के जाने के बाद एक अलसाई अंगड़ाई ले विशू उठ बैठा. घड़ी ठीक 10 बजा रही थी. चलो, अब पूरे 4 घंटे हैं उस के हाथ में सोचविचार कर निर्णय लेने को. फ्रैश हो कर आते ही संतो ने ताजी चाय ला कर स्टूल पर रखी. उस ने चाय पी. रीमा से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. आज वह स्वयं समझा गई उस का रिश्ता बस स्वार्थ का रिश्ता है. इन्हीं सब उलझनों में फंसा वह अतीत में खो गया.

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