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लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

सुबह से ही बहुत व्यस्त कार्यक्रम था. अविनाश थक कर चूर हो चुका था. आज उस की रिकार्डिंग थी. रिकार्डिंग के बाद मैनेजर ने एक कार्ड अविनाश के हाथ में थमाया.

आज उस का अपना शहर उसे फिर से पुकार रहा था. गुलमोहर का पेड़, विद्यालय की सीढ़ियां, चाचा की चाय और न जाने क्याक्या...सबकुछ उस की आंखों से गुजरता चला गया.

कल सुबह ही निकलना था. परसों कार्यक्रम है और 8 घंटे का रास्ता. शाम तक पहुंच जाएगा.

एक अजीब सी बेचैनी थी. अविनाश समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इस बैचेनी की वजह क्या थी? कुछ न कुछ तो जरूर होने वाला है, पर क्या? इस सवाल ने उसे और भी बेचैन कर दिया.

आज वर्षों बाद फिर अनायास ही उस के हाथ किताबों की अलमारी की तरफ बढ़ गए. ऐसा लगा मानों आज अविनाश का अतीत बारबार उसे अपनी ओर खींच रहा था. सुचित्रा की भेंट की हुई किताब उसे बहुत प्रिय थी. किताब को सीने से लगाए वह कार में बैठ गया. खिड़की से आती हवा से मनमस्तिष्क एक गहरे सुकून में डूबता चला गया.

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क्या नहीं था उस के पास... फिर भी वह अधूरा था. चचंल हिरनी सी वे आंखें उस का हर जगह पीछा करती रहतीं.

शहर के शोरशराबे से दूर कार तेजी से आगे भागती जा रही थी और यादों का कारवां कहीं पीछे छूटता चला जा रहा था. यादें...किताब के पन्नों की तरह... परत दर परत खुलती चली गईं.

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