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सुधा के मुख से यह सुन उस की मां उस के करीब जा कर समझाने लगी, ‘‘बेटी, कुछ लोगों का काम ही उत्पाद मचाना होता है. अगर उन के दिल में संवेदना होती तो ऐसा काम करते ही क्यों? पर तुम निलेश के पिता के लिए इतनी दुखी न हो. सैनिक का जीवन तो ऐसा ही होता है बेटी, उन के सिर पर हमेशा कफन बंधा होता है. वे देश के लिए लड़ते हैं, पर उन का परिवार एक दिन अचानक ऐसे ही बिखर जाता है. मरता तो एक इंसान है लेकिन बिखर जाते हैं मानो घर के सभी सदस्य. हम उस शहीद को नमन करते हैं. ऐसे लोग कभी मरते नहीं बल्कि अमर हो जाते हैं.’’ पर सुधा अपने कमरे में आ कर सोचने लगी कि काश, निलेश के लिए वह कुछ कर पाती. आज वह कितना दुखी होगा. एक तरफ मैं ने उस का प्यार ठुकरा दिया, दूसरी तरफ उस के सिर से पिता का साया उठ गया. इस समय मुझे उस के साथ होना चाहिए था. आखिर दोस्त ही दोस्त के काम आता है. कई बार जब मैं निराश होती तो वह मेरा साहस बढ़ाता. आज क्या मैं उस के लिए कुछ नहीं कर सकती? वह बारबार फोन करती पर कोई जवाब नहीं आता तो निराश हो जाती.

2 महीने बाद परीक्षा हौल में उस की आंखें निलेश को ढूंढ़ रही थीं. पर उस का कोई अतापता नहीं था. वह सोचने लगी, क्यों उस के विषय में वह चिंतित रहने लगी है? वह मात्र दोस्त ही तो था, एकदिन जुदा तो होना ही था. फिर उसे ध्यान आया कि कहीं उस की परीक्षा खराब न हो जाए, और वह अपना पेपर पूरा करने लगी. एक महीने बाद जिस दिन रिजल्ट निकलने वाला था, वह कालेज गई तो सभी दोस्तों से उस का हाल जानने का प्रयत्न किया पर किसी ने उसे संतुष्ट नहीं किया. सभी अपने कैरियर की बातों में मशगूल दिख रहे थे. वह घर लौट गई. एकदिन अपनी डिगरी हाथ में ले कर सोचने लगी कि काश, निलेश को भी स्नातक की उपाधि मिली होती तो उस की खुशियां भी दोगुनी होती. न जाने वह जिंदगी कहां और कैसे काट रहा है? जिन आंखों को देख कर वह उन में समा जाना चाहता था क्या वे आंखें अब उसे याद नहीं आतीं? कालेज के अंतिम दिन जो बातें मुझ से की थीं, क्या वह सब नाटक था या यों ही भावनाओं में बह कर बयां कर दिया था, पर मैं ने भी तो उसे तवज्जुह नहीं दी थी. कहीं वह मुझ से नाराज तो नहीं. उस के मन में अनेक खयालों के बुलबुले उठते रहते.

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