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‘‘इसमहीने की 12 तारीख को अदालत से फिर आगे की तारीख मिली है. अभी भी मामला गवाहियों पर अटका है. हर तारीख पर दी जाने वाली अगली तारीख किस तरह किसी की रोशन जिंदगी में अपनी कालिख पोत देती है, यह कोई मुझ से पूछे.’’

न जाने कितनी बार इशिता का भेजा मेल उलटपलट कर पढ़ चुकी थी मैं. हर बार नजर उन 2 पंक्तियों पर अटक जाती, जिन में उस ने प्रसन्न से तलाक लेने की बात की थी. 20 बरस तक विवाह की मजबूत डोर से बंधी जिंदगी जीतेजीते तो पतिपत्नी एकदूसरे की आदत बन जाते हैं, एकदूसरे के अनुरूप ढल जाते हैं, फिर अलग होने का प्रश्न ही कहां उठता है?

मन की गहराइयों से आती आवाज ने पुरजोर कोशिश की थी इस सच को नकारने की, पर यथार्थ मेल में भेजी उन 2 पंक्तियों के रूप में मेरे सामने था. कैसे विश्वास करूं, समझ नहीं पा रही थी… सबकुछ झूठ सा लग रहा था.

मन अतीत में भटकने लगा था… बरसों पुरानी धुंधली यादें मेरे मनमस्तिष्क पर एक के बाद एक अपने रंगरूप में साकार सी हो उठी थीं. मेरे सामने थी मातापिता के टूटे रिश्तों की बदरंग तसवीर, सहमी सी इशिता, जिस ने मामामामी के तलाक की परिणति में उस उम्र में दरदर की ठोकरें खाई थीं, जब लड़कियां गुडि़यों के ब्याह रचाती हैं और मामामामी जब पुनर्विवाह की डोर में बंध गए तो नन्ही इशि मेरी मां की गोद में शाख से गिरे पत्ते की भांति आ कर गिरी थी.

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वैसे मां खुद ही उसे अपने घर ले आई थीं. अपनेअपने नीड़ के निर्माण में मग्न मामामामी को तिनके जोड़ने और तोड़ने से ही फुरसत कहां थी, जो अपनी बेटी को रोकते? कभी पलट कर मां से उस की खोजखबर भी तो नहीं ली थी उन्होंने.

यों मां ने इशिता को भरपूर प्यार दिया था. अपनी और भाई की बेटी की देखरेख में अंतर नहीं किया, लेकिन फिर भी इशिता का भावुक मन कई बार विचलित हुआ था. मां सबकुछ दे कर भी मां नहीं बन सकी थीं. कई बार उस का मन करता उस की जिद पर, नादानी पर कोई डांटे, रोने पर कोई दुलार करे, पर उसे रोने का अवसर ही कब देती थीं मां?

इतना प्यार जताने के बाद भी उसे अपनी जननी न जाने क्यों याद आती. अकसर मेरी गोद में सिर रख कर इशिता सिसक उठती, ‘‘दीदी, चिडि़या भी अपने बच्चों की देखभाल तब तक करती है, जब तक वे उड़ना न सीख जाएं. अगर मुझे पाल नहीं सकते थे तो जन्म ही क्यों दिया उन्होंने?’’

मैं उस के गालों पर लुढ़क आए आंसुओं को जबतब पोंछती, पर कभी समझा नहीं पाई कि कभीकभी स्वार्थ का पलड़ा फर्ज के पलड़े से भारी हो उठता है. उस कच्ची उम्र में इस बात का मर्म समझ भी कहां पाती वह? कुछ बड़ी हुई तो हमेशा मातापिता के संबंधविच्छेद के लिए दोषी मां को ही ठहराया उस ने.

बच्चों की खातिर कराहते वैवाहिक बंधन के निर्वहन का दम भरने वाली इशिता स्वयं कैसा कठोर निर्णय ले बैठी? ऐसा क्या घटा जो वज्र जैसी छाती को मर्माहत कर गया? क्या पतिपत्नी का जुड़ाव नासूर बन कर ऐसी लहूलुहान पीड़ा दे गया कि अब कोई दूसरा विकल्प ही नहीं रह गया था? क्या दांपत्य जीवन में दरार कभी भी पड़ सकती है?

अचानक टैक्सी के रुकने की आवाज ने

मुझे ऊहापोह की यात्रा से यथार्थ में लौट आने

को विवश कर दिया. मेल में भेजे पते को

खोजती हुई मैं सही जगह पहुंच गई थी.

दिल्ली के एक पौश इलाके में स्थित बहुमंजिला इमारत में उस का सुंदर सा फ्लैट था. घर की सजावट देख कर लगा उस के पास जीविका के सभी साधन हैं, किसी की दया की मुहताज नहीं है वह. टेबल पर लगे फाइलों के ढेर, बारबार बजती फोन की घंटियां सब उस की व्यस्तता के स्पष्ट परिचायक थे.

इशिता शायद घर पर नहीं थी वरना मेरे आने की सूचना सुन कर जरूर पहुंच गई होती. अब तक नौकरानी चायनाश्ता दे गई थी. मैं कोने में रखे स्टूल पर से अलबम उठा कर उस के काले पन्ने बदलने में मशगूल हो गई, जिस में संजोई यादें अब इशिता का अतीत बन चुकी थीं.

कुछ ही देर में इशिता मेरे सामने थी. उसे आलिंगन में ले कर जैसे ही मैं ने उस

के माथे को चूमा उस के आंसू उस के गालों पर लुढ़क गए. ये आंसू दांपत्य की टूटन और सामाजिक प्रताड़ना के त्रास से उत्पन्न हताशा के सूचक थे या किसी अपने आत्मीय से मिलने की खुशी में उस का तनमन भिगो गए थे, जान ही नहीं पाई मैं. 20 बरस के अंतराल में बहुत कुछ सरक गया था… यही सब तो पूछने आई थी मैं उस के पास.

काफी समय इधरउधर की बातों में ही निकल गया. कभी वह आलोक के बारे में

पूछती, कभी मेरे बेटे और बहू के बारे में प्रश्न करती. मैं कनखियों से उस के दिव्य रूप को निहार रही थी. वही गौर वर्ण, छरहरा संगमरमर सा तराशा शरीर, कंटीली भवें, सूतवां नाक, मृगनयनी सी आंखें, कुल मिला कर अभी भी किसी पुरुष को आकर्षित कर सकती थीं… वही सौम्य व्यवहार, वही शिष्टता. कुछ भी तो नहीं बदला था.

हां, सहमी सी रहने वाली इशिता की जगह अब मेरे सामने बैठी थी सुदृढ़, आत्मविश्वास से भरपूर इशिता, जिस ने जीवन की टेढ़ीमेढ़ी पगडंडियों और अंधेरे रास्तों पर आने वाली हर अड़चन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया था. उस की मांग का सिंदूर, कलाइयों में खनकती लाल चूडि़यां और माथे पर लाल बिंदिया देख कर तो मन शंकित हो उठा था कि ये सुहागचिह्न तो पति के अस्तित्व के सूचक हैं, फिर वह मेल?

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अब तक मैं अपने ऊपर नियंत्रण खो चुकी थी, लेकिन कुछ पूछने से पहले ही वह कोई न कोई प्रश्न कर देती जैसे अपने अतीत को कुरेदने से डरती हो.

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