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लेखिका- डा. छाया श्रीवास्तव

आभा और अमित जब शाम 5 बजे कालिज से लौटे तो अपने दरवाजे पर भीड़ देख कर घबरा गए. दोनों दौड़ कर गए तो देखा कि उन के पापा, लहूलुहान मम्मी को बांहों में भरे बिलखबिलख कर रो रहे हैं. दोनों बच्चे यह सब देख कर चकरा कर गिर पड़े. उन के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. तब पत्नी को धरती पर लिटा कर अपने दोनों बच्चों को छाती से लगा कर वह भी आर्तनाद कर उठे. पड़ोसियों ने उन्हें संभाला, तब दोनों को ज्ञात हुआ कि घटना कैसे हुई.

पड़ोस की कुछ महिलाएं नित्य मिल कर सब्जी-भाजी लेने जाती थीं. गृहस्थी का सब सामान लाद कर ले आतीं. उस दिन भी 4 महिलाएं सामान खरीद कर आटो से लौट रही थीं तभी पीछे से सिटी बस ने टक्कर मार दी. सामान का थैला पकड़े माया किनारे बैठी थीं. वह झटके से नीचे गिर पड़ीं. उधर सिटी बस माया को रौंदती हुई आगे निकल गई. बीच सड़क पर कोहराम मच गया. माया ने क्षण भर में प्राण त्याग दिए. पुलिस आई, केस बना, महेंद्र को फोन किया और वह दौड़े आए. उन की दुनिया उजाड़ कर समय अपनी गति पर चल रहा था परंतु गृहस्थी की गाड़ी का एक पहिया टूट कर सब अस्तव्यस्त कर गया.

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मां तो बेटी से अब तक कुछ भी काम नहीं कराती थीं परंतु अब उस के कंधों पर पूरी गृहस्थी का भार आ पड़ा. कुछ भी काम करे तो चार आंसू पहले रो लेती. न पढ़ाई में चित्त लगता था न अन्य किसी काम में. न ढंग का खाना बना पाती, न खा पाती. शरीर कमजोर हो चला था. तब उन्होंने अपने आफिस के साथियों से कह कर एक साफसुथरी, खाना बनाने में सुघड़ महिला मालती को काम पर रख लिया था. चौकाबर्तन, झाड़ूपोंछा और कपड़े धोने के लिए पहले से ही पारोबाई रखी हुई थी. महेंद्र कुमार उच्चपदाधिकारी थे. अभी आयु के 45 वसंत ही पार कर पाए थे कि यह दारुण पत्नी बिछोह ले बैठे. सब पूर्ति हो गई थी, नहीं हुई थी तो पत्नी की. घर आते तो मुख पर हर क्षण उदासी छाई रहती. हंसी तो जैसे सब के अधरों से विदा ही हो चुकी थी. जीवन जैसेतैसे चल रहा था.

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