मैं जब भी किसी नेता को यह कहते हुए सुनता हूं कि वे तो राजनीति छोड़ना चाहते हैं, पर राजनीति उन्हें नहीं छोड़ती, मुझे उस गरीब की याद आ जाती है जो घोर सर्दी में कहीं से एक कंबल पा गया था. उस से अगर कोई पूछता था, ‘‘बहुत सर्दी है क्या?’’ तो उस का जवाब होता था, ‘‘कतई नहीं.’’ अगला सवाल, ‘‘तो कंबल में यों ठिठुर क्यों रहे हो?’’ उस का जवाब होता, ‘‘मैं तो यह कंबल छोड़ना चाहता हूं पर यह कंबल मुझे नहीं छोड़ता.’’

उक्त प्रसंग का एक खास कारण है कि मेरी भी दशा उन नेताओं जैसी बरबस होती जा रही है. मैं कतई राजनीति नहीं पसंद करता. मैं आजीवन हिंदी लेखन का एक छात्र बना रहना चाहता हूं पर मुसीबत तो यह है कि यह राजनीति मेरे व्याकरण पर भी सवार हो चुकी है. अब क्योंकि हिंदी लेखन तो मैं छोड़ नहीं पाऊंगा लिहाजा, इस से भी पिंड छूटता नजर नहीं आता.

गौर कीजिए, जब देश के राष्ट्रपति के पद के लिए प्रतिभा देवीसिंह पाटिल के नाम का प्रस्ताव आया था तो राजनीतिक हलकों में एक बहस छिड़ गई थी कि अगर उस खास पद पर एक पुरुष हो तो राष्ट्रपति कहा जाना तर्कसंगत है पर जब उस पर कोई महिला हो तो क्या उसे राष्ट्रपत्नी कहा जाना चाहिए? भाई लोगों ने चटखारे लेले कर इस सियासती व्याकरण की खूब खिल्ली उड़ाई थी. प्रतिभा पाटिल के बहाने चली बहस में महात्मा गांधी को भी लपेट लिया गया था कि अगर वे राष्ट्रपिता थे तो क्या कस्तूरबा गांधी राष्ट्रमाता थीं. ऐसी बचकाना हरकत  इंदिरा गांधी के समय में भी एक बार उछाली गई थी. यह एक व्याकरणात्मक राजनीति थी.

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