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लेखक- नीरजा श्रीवास्तव

एक दिन काम से लौटा तो मौली बच्चों के साथ हैप्पी बर्थडे गीत गा कर क्लैपिंग करवा रही थी. किसी बच्चे का जन्मदिन था. चौकलेट ले कर बच्चे बस घर जा ही रहे थे. उन को गेट तक छोड़ कर वह अंदर आ गई.

मलय बरस पड़ा, ‘‘मालूम है न मुझे काम से लौट कर आने पर शांति चाहिए.

ये सब ड्रामे पसंद नहीं. कल से बच्चे मेरे घर में पढ़ने नहीं आएंगे. ज्यादा शौक है तो कहीं और किराए पर रूम ले कर पढ़ाओ, मेरी खुशियों से तो तुम्हें कोई मतलब नहीं, बस अपने में ही लगी रहो...’’ वह बच्चों के सामने झल्लाता हुए अपने रूम में चला गया. मौली के दिल में खंजर की तरह बात घुस गई, मोटेमोटे आंसू गाल पर ढुलकने लगे. सब्र का बांध जैसे टूट चला था.

‘‘मेरा घर... मेरी खुशी... मैं तो अपना घर समझ ब्याह कर आई थी. मुफ्त की ड्यूटी बजाने के लिए नहीं. न ही नौकर की तरह बस तुम्हारे हुक्म की तामील करने. अपनी खुशी की बात करते हो, कभी पत्नी की खुशी सोची तुम ने?

‘‘नाजों से पली बेटी, अपना ऐशोआराम सब कुछ छोड़ पराए घर को अपना लेती है, सब की सेवा में जीजान से लगी रहती है, अपनी आदतों को दूसरों की आदतों में खुशीखुशी ढालने में हर पल प्रयासरत रहती है, खानपान, पहनावा, व्यवहार, खुशी, गम, मजबूरी सब को ही अपना लेती है और एक सैकंड में तुम ने बाहर का रास्ता दिखा दिया. ऐसी ही पत्नी चाहिए थी तो किसी गरीब, बेसहारा, अनपढ़ को ब्याह लाने की हिम्मत करते, जो तुम्हारी खैरात का एहसान मान कर हाथ जोड़े बैठी रहती. लेकिन नहीं. खानदानी और संस्कारी भी चाहिए और पढ़ीलिखी, रूपसी, इज्जतदार व अच्छे घर की भी...’’ गुस्से में कांपती मौली पहली बार एक सांस में इतना कुछ बोल गई, मलय भौंचक्का सा देखता रह गया.

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