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लेखक- उषा रानी 

मरा हुआ मन भी कभीकभी कुलबुलाने लगता है. आखिर मन ही तो है, सो पति के आने पर उन्होंने हिम्मत कर ही डाली.

‘‘आज चलिए ‘मन मंदिर’ में चल कर परिणीता देख आते हैं. नई ऐक्ट्रेस का लाजवाब काम है. अच्छी ‘रीमेक’ है. मैं ने टिकट मंगवा लिया है.’’

‘‘टिकट मंगवा लिया? यह तुम्हारा अच्छाखासा ठहरा हुआ दिमाग अचानक छलांगें क्यों लगाने लगता है? पता है न कि पिक्चर हाल की भीड़भाड़ में मेरा दम घुटता है. मंगा लो सीडी, देख लो. इतना बड़ा ‘प्लाज्मा स्क्रीन’ वाला टीवी किस लिए लिया है? हाल के परदे से कम है क्या? तुम भी न तरंग, अपने ‘मिडिल क्लास टेस्ट’ से ऊपर ही नहीं उठ पातीं.’’

वह चुप हो गईं. पति से बहस करना, उन की किसी बात को काटना तो उन्होंने सीखा ही नहीं है. बात चाहे कितनी भी कष्टकारी हो, वह चुप ही लगा जाती हैं. वैसे यह भी सही है कि जितनी सुखसुविधा, आराम का, मनोरंजन का हर साधन यहां उपलब्ध है, इस की तो वह कभी कल्पना कर ही नहीं सकती थीं.

वह स्वयं से कई बार पूछती हैं कि इतना सबकुछ पा कर भी वह प्रसन्न क्यों नहीं? तब उन का अंतर्मन चीत्कार कर उठता है.

‘तरंग, क्या जीवन जीने के लिए, खुश रहने के लिए शारीरिक सुख- सुविधाएं ही पर्याप्त हैं? क्या इनसान केवल एक शरीर है? तो फिर मनुष्य और पशुपक्षी में क्या अंतर हुआ? तुम तो स्वच्छंद विचरती चिडि़या से भी बदतर हो. पिंजरे वाली मुनिया में और तुम में अंतर क्या है? तुम भी तो अपना मुंह तभी खोलती हो जब कहा जाए. ठीक वही बोलती हो जो सिखाया गया हो, न एक शब्द कम, न एक शब्द अधिक.’

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