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धीरेधीरे हर शामसुबह हम एकदूसरे से बात करने लगे थे.  या तो वह मुझे फोन कर लेती या मैं. शायद, हम एकदूसरे के आदी होने लगे थे. मुरझाई हुई बेल बारिश के आने पर जैसे हरे रंग से लिपट कर इठलाने लगती है वैसे ही आलिया भी लगने लगी थी. सूरज की पहली किरण से ले कर चंद्रमा की चांदनी तक का पूरा ब्योरा वह मेरे सामने जब तक न रख लेती उसे चैन ही न आता. आज मेरा बहुत मन किया कि संदेश से बात करूं और उसे आलिया के बारे में सब बताऊं, मगर मेरी यह चाहत गुनाह का रूप ले सकती थी. सो, खुद को समझा लिया. हां, आलिया से मैं ने एक बार संदेश का जिक्र जरूर किया था. तब वह अल्हड़ लड़की उतावली हो कर नाराजगी जताने लगी थी- ‘क्या जरूरत थी आप को दी इतना महान बनने की? आप ने अपने प्यार का गला अपने ही हाथों क्यों घोट दिया? क्या मिला आप को बदले में?’

‘संदेश आज भी मुझ से प्यार करता है. वह मुझे कभी नहीं भूल सकता. आलिया, बस, यही मेरे लिए काफी है.’

‘जाने दो, दी. मैं आप से कभी जीतना नहीं चाहूंगी, क्योंकि आप तो सुनोगी नहीं. आप तो त्याग की देवी हो,’ आलिया ने नाराजगी में शब्दों को थोड़ा सा गरम किया था.

माहौल को हलका करने के लिए हम दोनों ही फूहड़ता से ठहाका लगा दिए थे. हंसने के लिए मैं ने ही उसे बाध्य किया था, वरना वह तो जाने कब तक मुंह फुलाए रहती.

सूरत बगैर देखे ही भाव पढ़े जाते रहे थे. वह तो जादूगरनी थी यह तक बता देती कि मैं क्या सोच रही हूं. इस कदर परवा करती कि मुझे उस से डरना पड़ता था. विचारों को कैद करने वाला जादूगर कोई ऐसावैसा नहीं होता, कौन जाने रूठ कर मैं उलाहना देने लगूं और वह पढ़ ले. रोज वही गाना जब तक न सुना लेती, फोन कट न करती- ‘दिल आने की बात है जब कोई लग जाए प्यारा, दिल पर किस का जोर है यारो, दिल के आगे हर कोई हारा, हाय रे मेरे यारा...’

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